बुधवार, 29 अगस्त 2018

JAB NARIYON KI LAAZ BACHAI RAO SATAL NE

जब नारियों की लाज बचाई राव सातल ने

    राजस्थान की बहुरूपा संस्कृति में गणगौर पर्व का बड़ा महत्व है। इस अवसर पर सुहागिन औरतें तथा कुंवारी कन्याएँ घुड़ला घुमाती है तथा अंतिम दिन ये घुड़ला पानी में डुबो दिया जाता है। तथ्य यह भी है कि यह घुड़ला छिद्रयुक्त होता है। यह परंपरा बरसों से हमारे राज्य में चली आ रही है जिसका आनंद स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से लेते हैं। जोधपुर में तो गत 40-50वर्षों से फगड़ा घुड़ला मनाया जाता है, जिसकी चर्चा अन्यत्र की जायेगी। घुड़ले के इस त्योंहार का सम्बन्ध जोधपुर के राव सातल के समय घटी एक ऐतिहासिक घटना से है, जिसकी जानकारी देना प्रासंगिक रहेगा।
    राव सातल का जन्म सन् 1435ई. में हुआ था। इनके पिता जोधपुर संस्थापक राव जोधा तथा माता हाड़ी रानी जसमादे थी। कहा जाता है कि राव जोधा के कुल 20 पुत्रों में से राव सातल तीसरे बड़े पुत्र थे। जोधा के ज्येष्ठ पुत्र नीम्बा का प्राणान्त उनके जीवनकाल में ही हो गया था तथा उनके दूसरे बड़े पूत्र जोगा को मंदबुद्धि मानने के कारण राव सातल को राजगद्दी प्राप्त हुई तथा 14मई1488ई. को राव सातल का राजतिलक हुआ। बीकानेर के संस्थापक राव बीकाख् मेड़ता के राव दूदा तथा बरसिंह, सूजा आदि भी राव सातल के सहोदर थे। राजतिलक के कुछ ही दिन बाद राव सातल ने मारवाड़ के पोकरण ठिकाने से दो कोस दूरी पर एक दुर्ग का निर्माण करवाकर उसे सातलमेर नाम दिया। इनकी कुल सात रानियां थी, जिसमें से एक रानी फूलकंवर कुंड़ल के भाटी देवीदास की पुत्री थी। यही भाटी देवीदास सन् 1457ई. के करीब जैसलमेर के रावल बने। रावल बनने पर उन्होंने कुंड़ल की जागीर अपने दामाद राव सातल को सुपुर्द कर दी। इसी रानी फूलकंवर ने फूलेराव नाम से प्रसिद्ध तालाब जोधपुर में बनवाया था।
    सातल जी का छोटा भाई बरसिंह मेड़ता में राजदरबार की ओर से शासन चलाता था। एक बार मेड़ता में अकाल पड़ने पर उसने हमलावर सांभर क्षेत्र को लूट लिया। उस समय सांभर अजमेर के अधीनस्थ था, अतः सांभर के चौहान शासक ने अजमेर के सूबेदार मल्लू खां, जो मांडू के सुल्तान नासिरशाह की ओर से अजमेर में नियुक्त किया गया था, को इस घटना की जानकारी देकर सुरक्षा की फरियाद की। तब सूबेदार मल्लू खां ने बरसिंह को अजमेर बुलाकर धाखे से कैद कर लिया। इस घटना की सूचना मिलते ही राव सातल तथा बीकानेर के राव बीका व राव दूदा ने अजमेर पर धावा बोल दिया। घबराये मल्लू खां ने उस समय तो बरसिंह को छोड़ दिया, पर अंदर ही अंदर प्रतिशोध की तैयारी करने लगा। शीघ्र ही उसने पूरी तैयारी के साथ मेड़ता पर हमला बोल दिया। इस लड़ाई में मांडू का सेनापति सिरिया खां तथा सिंध का मीर घुड़ला खां भी साध में थे। बरसिंह तथा दूदा दोनों जोधपुर भाग आये तथा मल्लू खां ने मेड़ता को बूरी तरह लूटा अब वह जोधपुर की ओर बढ़ने लगा। राव सातल अपने भाईयों बरसिंह, दूदा, सारंग खींची तथा बरजांग भीमोत आदि सरदारों के साथ मुस्लिम सेना की ओर बढ़े। इसी बीच मुस्लिम सेना ने पीपाड़ आकर पीपाड़ को भी लूटा। संयोगवश उस दिन गणगौर था तथा सुहागिन महिलाएँ व कुंवारी कन्याएँ गणगौर की पूजा करने आई हुई थीं। घुड़ले खां ने उनमें से करीब 140 औरतों तथा कन्याओं को कैद कर लिया। तथा वहां से कोषाणा (तह.भोपालगढ़ जिला जोधपुर) आकर अपना डेरा जमा लिया। उस समय रात तो हो चुकी थी। जब सातलजी को यह सूचना मिली कि पीपाड़ की स्त्रियों व कन्याओं को मुसलमानों ने बंदी बना लिया है तथा रात को उनकी इज्जत पर हाथ ड़ाला जा सकता है, तो वह क्रोध से भर उठे तथा नारियों की रक्षार्थ रात्रिकाल में ही मल्लू खां के शिविर पर हमला कर दिया। घबराये मुसलमान भाग छूटे। मल्लू खां अजमेर की तरफ भाग गया तथा सिरिया खां को दूदा ने मार गिराया। मीर घुड़ले खां तथा सातल जी में भयंकर लड़ाई हुई, आखिरकार सातलजी ने घुड़ले खां को मार गिराया तथा स्वयं भी बहुत घायल हो गये। उनके निर्देश पर औरतों को आजाद कर दिया गया। सांरग खींची ने घुड़ले खां का सिर काटकर उसमें तीरों से छेद कर दिये तथा उसका छिद्रित सिर को उन औरतों को सौंप दिया जिनका उसने अपमान किया था। औरतें राव सातल की यशोगाथा गातीं हुईं घुड़ले खां का सिर लेकर पूरे पीपाड़ में में घर-घर घूमीं। इस घटना के प्रतीक के रूप में न केवल मारवाड़ वरन् पूरे राजस्थान में आज भी घर-घर घुड़ला घुमाया जाता है तथा अंतिम दिन उसे जल में डूबो दिया जाता है। कोसाना की लड़ाई में घायल राव जीवित नहीं रह सके लेकिन स्त्रियों की मान रक्षा कर वे आज भी अमर है। 1 मार्च 1492 को राव सातलजी का स्वर्गवास हो गया तथा कोसाना के तालाब के किनारे ही उनका अंतिम संस्कार किया गया, जहां उनकी छतरी आज भी मौजूद है। उनकी सातों रानियां भी उनके साथ सती हुईं। उनकी एक रानी हरखाबाई की पूजा तो नागणेची माता के साथ की जाती है। जोधपुर राजघराने की ओर से चैत्र सुदी तीज को पहले ईसर तथा गवर दोनों की पूजा की जाती थी, लेकिन राव सातल की मृत्यु के बाद इस दिन केवल गवर की ही पूजा की जाती है। 
    उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विभिन्न ऐतिहासिक ग्रंथों में कोसाना की लड़ाई का नायक राव सातल को बताया गया है, लेकिन चैलदान खिड़िया कृत ग्रंथ खींची वंश प्रकाश में इस लड़ाई का नायक सारंग खींची को बताया गया है। अधिकांश इतिहासकार इस तथ्य से सहमत नहीं है। 
    इस प्रकार घुड़ला जब तक स्त्रियों के द्वारा घुमाया जाता रहेगा, वीर सातल की यशोगाथाएं यूं ही अमर रहेगी।
- महेन्द्र कुमार जोशी
संदर्भः-श्री जुगल परिहार द्वारा लिखित लेख।    


शनिवार, 25 अगस्त 2018

JODHPUR KI STHAPNA

जोधपुर की स्थापना 

राव जोधा(29.3.1415 से 16.4.1488)

     सन् 1949ई. में विशाल राजस्थान में सम्मिलित होने से पूर्व जोधपुर मारवाड़ रियासत की राजधानी थी।12मई 1459ई.को जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी मंडोर में थी।मंड़ोर करीब 18वर्षों तक मारवाड़ की राजधानी रहा था।इतिहासकारों के अनुसार राठौड़ों से पूर्व यह प्रदेश मौर्य, कुषाण, हूण, गुप्त, गुर्जर-प्रतिहार, चावड़ा तथा परिहार वंश के आधिपत्य रहा था।15वीं सदी के आसपास से सींमात प्रदेश होने तथा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह क्षेत्र बार बार आक्रमणकारियों से आक्रान्त होेने लगा था तथा यहाँ के तत्कालीन परिहार शासक भी इन आक्रमणों का प्रतिरोध करते करते थक चुके थे।अतः राजा धवलइंदा परिहार ने  मंड़ोर को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाने के लिए राठौड़ वंशी परम शक्तिशाली राव चूंडा से अपनी पु़त्री का विवाह कर मंड़ोर राठौड़ों को दहेज में दे दिया।तब से मारवाड़ राठौड़ों के आधिपत्य में रहा। इस बाबत मारवाड़ में यह सोरठा प्रसिद्ध है-
इंदा तणों उपकार कमधज(राठौड़) कदै न बीसरै।
चूंड़ों चंवरी चाढ़ दियौ मंड़ोवर दायजै।।
     राव चूंड़ा के पुत्र राव रिड़मल अथवा राव रणमल्ल भी पराक्रमी थे लेकिन वे मेवाड़ की राजनीति में अधिक सक्रिय थे क्योंकि राव चूंड़ा के पुत्र रिड़मल को उनकी बहन हंसाबाई ने मेवाड़ बुुलवाया क्योंकि सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ की राजनीति में चल रही उथल-पुथल से वह अपने पुत्र मोकल को बचाना चाहती थी। इस प्रकार रिड़मल मोकल तथा बाद में उसके पुत्र कुंभा का संरक्षक बना कुंभा ने रणमल की सहायता से अपने पिता के हत्यारों से प्रतिशोध लेकर अपनी सत्ता की धाक जमाई थी,इस वजह से रिड़मल का महत्व मेवाड़ में बढ़ गया था।रिड़मल के बढ़ते प्रभाव से आशंकित कुंभा ने लाखा के बड़े पुत्र चूंड़ा जो राजस्थान का भीष्म भी कहा जाता है तथा मेवाड़ के कुछ सरदारों के सहयोग तथा राजमाता सौभाग्यदेवी के साथ मिलकर रिड़मलजी के विरूद्ध षडयंत्र रचा तथा एक दासी भारमली की सहायता से रिड़मल को मरवा दिया। रिडमल के पुत्र राव जोधा भी उस समय मेवाड़ में थे लेकिन वे किसी प्रकार बचकर मारवाड़ की ओर आ गये तथा इस प्रकार मंड़ोर की सत्ता कुछ समय के लिये मेवाड़ के अधिकार क्षेत्र में आ गयी। इधर राव जोधा मरूप्रदेश में भटकते रहे तथा अपनी स्थिति मजबूत करते रहे। करीब 15 साल तक शक्ति एकत्र करने के बाद जोधा ने महाराणा कुम्भा के सेनापति अक्का सिसोदिया तथा अहाड़ा हिंगोला को मार कर मंड़ोर पर पुनः अधिकार कर लिया। इस प्रकार जोधा के नेतृत्व में मारवाड़ के राठौड़ वंश का सूर्य पुनः उदित हुआ। दूरदर्शी जोधा ने मंड़ोर को आक्रमणों की दृष्टि से असुरक्षित मानकर करीब 10 किलोमीटर दूर चिड़ियानाथजी टूँक नामक पहाड़ी पर 12 मई 1459ई.(ज्येष्ठ सुदी एकादशी, शनिवार) को नये सुरक्षित, मजबूत तथा विशाल दुर्ग की नींव रखी और नये नगर की स्थापना की जो जोधपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जोधा ने मंड़ोर के पास जोधेबाव नामक तालाब का निर्माण भी करवाया तथा मंड़ोर से माता चामुंडा की प्रतिमा नये दुर्ग के मंदिर में स्थापित की। जोधा की बड़ी रानी जसमादे ने राणीसर नामक तालाब तथा एक अन्य सोनगरा वंशी रानी चाँदकँवर ने चाँद बावड़ी का निर्माण करवाया। राव जोधा के साथ मेवाड़ से आये सेठ पदमजी ने किलानिर्माण में उनकी आर्थिक मदद की तथा पदमसागर नामक तालाब भी बनवाया। राव जोधा के विभिन्न रानियों से कुल 20 पुत्र थे जिनमें से तीसरे पुत्र राव सातलजी उत्तराधिकारी बने। इनके 5वें पुत्र राव बीका थे, जिन्होंने बीकानेर बसाया। राव दूदा भी जोधा के पुत्र थे, जिन्होंने मेड़ता में ऊपर सत्ता स्थापित की। महान कृष्ण भक्त तथा कवयित्री मीरा इन्हीं दूदा की पौत्री थी। मारवाड़ की सत्ता पुनः स्थापित करने वाले तथा जोधपुर के इस निर्माता जोधा का स्वर्गवास 16 अप्रेल 1488ई. को हुआ। इस प्रकार मारवाड़ में राठौड़ों की सत्ता की पुनस्र्थापना का श्रेय राव जोधा को दिया जा सकता है।

:- महेन्द्र कुमार जोशी 


शनिवार, 18 अगस्त 2018

PICHHDA VARG AAYOG

पिछड़ा वर्ग आयोगःनवीन प्रावधान

    देश में कईं जातियां पिछड़ेपन का दंश कईं वर्षों से झेल रही थी। इन जातियों के उत्थान व हक के लिए किसी प्रतिनिधि की जरूरत महसूस हुई क्योंकि कोई भी लड़ाई बिना सेनापति, बिना प्रतिनिधित्व के नहीं लड़ी जा सकती। इसी को मद्देनजर रखते हुए सरकार ने पिछड़ी(सामाजिक व शैक्षणिक हैसियत से) जातियों के हितार्थ राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन तो किया लेकिन शक्तियां प्रदान करने के वक्त दिलचस्पी नहीं दिखाई। अतः इस आयोग के बारे में कहा जाता रहा है कि यह एक दंतहीन और नखविहीन यानी कि शक्ति रहित आयोग है। इसे कोई संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं था। देश में ओबीसी जातियों की संख्या भी कम नहीं है।
    मंड़ल आयोग ने 1931 की जातिवार जनगणना के आधार पर ही 1980 में राष्ट्रपति को रिपोर्ट सौंपी थी। उस समय भारत में ओबीसी जातियां कुल जनसंख्या का 52 प्रतिशत थी।उस समय ओबीसी जातियों की संख्या 3743 थी। उसके बाद से आज तक भारत में पुनः व्यवस्थित व व्यापक जातिवार जनगणना नहीं की गयी। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने 1999 के आधार वर्ष पर ओबीसी को कुल जनता का 36% एवं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने 2000 आधार वर्ष पर इसे 34% माना है। जिसमें मुस्लिम ओबीसी शामिल नहीं है। लेकिन वृहद् स्तर पर जनगणना किये बिना इन सब पर विश्वास करना कठिन होगा फिर भी आज भारत में ओबीसी की करीब 5000 से भी अधिक जातियां हैं। ऐसे में इस आयोग की महत्ता और अधिक हो जाती है।
    इस अयोग की स्थापना 1993 में की गयी। किन्तु अब तक ये आयोग केवल सिफारिश(recommend) ही कर सकता था कोई एक्शन नहीं ले सकता था। यही कारण था कि इसे दंतहीन व नखविहीन आयोग कहा जाता था। कोर्ट के मामलात में भी (नौकरियों व भर्ती प्रकिया के बाबत) अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आयोग इसका नेतृत्व करता था मतलब कि अदालती मामलों में भी यह आयोग किसी अन्य के ऊपर आश्रित था। 
    123वें संविधान संशोधन के बाद इस आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने का रास्ता साफ हो गया है। अनुसूचित जाति/जनजाति की शिकायतों का निपटारा अनुच्छेद 338 के अनुसार किया जाता है। अब तक पिछड़े वर्ग की शिकायतों का निपटारा भी इसी अनुच्छेेद के अंतर्गत किया जाता था लेकिन 123वें संविधान संशोधन-2017 के संसद के दोनों सदनों में पास हो जाने के बाद संविधान में दो नये अनुच्छेद 338-बी व 342-ए जोड़े जायेंगे। जिसके तहत राष्ट्रीय पिछड़ वर्ग आयोग को एक स्वायत निकाय के रूप में मान्यता मिल जायेगी जो पूर्व में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग को हासिल है।
    इस संविधान संशोधन से अब यह केवल सिफारिश करने तक ही न रहकर सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े व्यक्ति की शिकायत पर संज्ञान या एक्शन लेकर देश के किसी भी भाग में न केवल नोटिस और सम्मन जारी कर सकेगा, बल्कि एक सुनवाई न्यायालय के रूप में भी काम कर सकेगा। यह आयोग अब पिछड़ा वर्ग हेतु बनाये गये सुरक्षा उपायों से संबंधित मामलों की जांच व निगरानी करने के बाबत भी अधिकार प्राप्त होगा।
    राज्य अब अपनी ओबीसी सूची के लिए भी स्वतंत्र होंगे यानी अब राज्य बिना राज्यपाल से परामर्श लिए किसी खास जाति को ओबीसी सूची में ड़ालने के लिए सीधे केन्द्र या आयोग को सिफारिश भेज सकेंगे।
    एक ओर पूरे देश में आरक्षण प्राप्त करने की होड़ लगी है तो दूसरी ओर सरकार इन सब पर चौतरफा घिरी नज़र आती है। ऐसे में इस आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलना देश में आरक्षण प्रेरित आंदोलनों को रोकने के लिए मील का पत्थर साबित होगा। यही आशा है कि आयोग अब व्यापक स्तर पर सुव्यवस्थित होकर देशहित में काम करेगा।
-दिनेश कुमार जोशी 

बुधवार, 15 अगस्त 2018

RAJASTHAN KA KUMBH : BENESWAR MELA

मावजी महाराजा की पुण्य भूमि: बेणेश्वर धाम

   रंग रंगीला राजस्थान विविध जातियों और संप्रदायों के पर्वों तथा मेलों के कारण भी स्वयं में एक अनूठी संस्कृति समाये हुए है। राजस्थान के धुर दक्षिण में स्थित बेणेश्वर धाम भी प्रदेश की इसी अनूठी संस्कृति के बहुरंगी चित्रांकन की बेजोड़ रचना करता है। आदिवासियों का कुंभ कहलाने वाला यह स्थल डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा की सरहदों पर स्थित है। त्रिदेवों के मंदिर का संगम स्थल होते हुए भी यहां का मुख्य आकर्षण शिव मंदिर है।
   कहा जाता है कि प्राचीन काल में इस स्थान पर बेण अर्थात् बांस के पेड़ों की प्रचुरता थी, अतः स्थल का नाम बेणेश्वर धाम पड़ा। कुछ आख्यानों के अनुसार यहां के बणैला शिव मंदिर को बेणका ईश्वर कहा जाता था, अतः इस स्थल का नाम शिव मंदिर के कारण बेणेश्वर धाम पड़ा। धर्म शास्त्रों के अनुसार प्रहलाद के पौत्र और विरोचक के पुत्र दैत्याराजबलि ने यहां यज्ञ किया था। डूंगरपुर जिले के साबला ग्राम के पास करीब 240 बीघा क्षेत्र में बना गृह स्थल एक टापू है जो सोम-माही-जाखम नदियों के संगम स्थल पर स्थित है। वर्तमान में साबला पंचायत समिति है, तथा यहां के मेले की समस्त व्यवस्थाएं जिला प्रशासन तथा पंचायत समिति द्वारा संपादित की जाती है। यह मेला माघ शुक्ल एकादशी से कृष्ण पंचमी तक अर्थात् कुल दस दिन तक भरता है। मेले में तीन राज्यों राजस्थान, गुजरात तथा मध्यप्रदेश के लोग भाग लेते है। मुख्य मेला पूर्णिमा को होता है।
   मेले में भक्तगण मावजी महाराज की जय-जयकार करते हैं। मावजी महाराज इस क्षेत्र के प्रसिद्ध संत हुए हैं जिनका जन्म 18वीं सदी में सांवला में हुआ था। इन्हें श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है।मावजी महाराज ब्राह्मण कुल के दालम ऋषि के पुत्र थे तथा उनकी माता का नाम केसर बाई था। इनका जन्म 28 जनवरी 1715ई. का माना जाता है। मावजी ने छोटे-मोटे करीब 750ग्रंथ लिखे थे। ज्योतिष को सरल करने के लिए विद्वान मावजी ने 64 कोठों की निष्कलंक सुकनावली बनाई जो वागड़ से संपादित श्रीशुभवेला पंचांग में प्रकाशित की जाती है। मावजी महाराज ने सोमसागर,, प्रेमसागर, मेघसागर, रतनसागर एवं अनंतसागर नामक पांच ग्रंथों की रचना की थी। इन्हीं ग्रंथों को वागड़ी भाषा (डुंगरपुर तथा बांसवाड़ा का क्षेत्र वागड़ कहलाता है। इस प्रदेश की भाषा वागड़ी है।) में चोपड़ा कहा जाता है। यह भी माना जाता कि यहां के शिव मंदिर में ही जिसका निर्माण करीब 500 वर्ष पूर्व डूंगरपुर के महारावल आसकरण ने करवाया था, मावजी ने चोपडे की रचना की थी। चोपडे में अनेक भविष्य वाणियों का संकलन है। ऐसा विश्वास है कि ये भविष्यवाणियां अब तक सही साबित हुई हैं। मावजी महाराज की प्रमुख गादी साबला में हैं।
   मावजी महाराज के देवलोक प्रयाग के बाद उनकी पुत्रवधु जनकुंवरी लगभग 80 वर्षों तक गादीपति रहीं। उन्होंने बेणेश्वर में हरि मंदिर (श्रीकृष्ण मंदिर) का निर्माण उस स्थान पर करवाया जहां मावजी महाराज अपनी साधना किया करते थे। यह स्थान आबूदरा कहा जाता है। मेले की शुरूआत इसी मंदिर पर साबला गादी के महंत द्वारा ध्वजारोहण के साथ होती है। यहां त्रिदेवों के मंदिर के अलावा भी कई मंदिर हैं। आदिवासियों के साथ ही विविध संप्रदायों के अमीर तथा गरीब लोगों के अलावा विदेशी पर्यटक भी मेले का पूरा आनंद लेते हुए दिखाई पड़ते है। आजकल मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा कई खेल प्रतियोगिताऐं भी आयोजित की जाती हैं, जिनसे मेले का आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। इस क्षेत्र की प्रमुख उक्ति हैः-
महीसागर नु पाणी नें मावजी नी वाणी।।
 
   
-महेंद्र कुमार जोशी 

रविवार, 5 अगस्त 2018

POKARAN KA VEER : SHYAM SINGH CHAMPAWAT

जब पोकरण का वीर गूंजा मारवाड़ के दरबार में

    बात उन दिनों की है जब जोधपुर पर राठौड़ वंश के महाराजा विजयसिंह का शासन था। महाराजा विजयसिंह बखतसिंह के पुत्र थे। उनका जन्म 1729ई. में हुआ।सिघोंली में बखतसिंह की मृत्यु के समय विजयसिंह मारोठ में थे तथा वहीं उनका राज्याभिषेक हुआ। बाद में 31 जनवरी1753ई.को उनके राजतिलक का उत्सव मनाया गया।करीब 40वर्ष तक शासन करने वाले विजयसिंह ने मारवाड़ में सर्वप्रथम अपने नाम से चाँदी के सिक्के चलाये थे,जो विजयशाही सिक्कों के नाम से प्रसिद्ध हुए।विजयसिंह की परम प्रिय प्रेयसी पासवान गुलाबराय थी,जो भरतपुर की जाट थी।मारवाड़ में उस समय गुलाबराय की ही हुकुमत चलती थी।जोधपुर का गुलाबसागर तालाब गुलाबराय ने ही बनावाया था।उस समय पोकरण ठिकाने के ठाकुर देवीसिंह चंपावत थे।पोकरण के ठाकुर महत्वाकांक्षी होने से मारवाड के राजदरबार तक अपना प्रभाव रखते थे तथा राठौड़ सरदारो में उनकी अच्छी पकड़ थी। महाराजा विजयसिंह तथा ठा.देवीसिंह में राजनीतिक प्रभुत्व को लेकर खींचतान चलती रहती थी,जिससे महाराजा बहुत परेशान थे।इसी बीच एक दिन मौका पाकर महाराजा ने देवीसिंह को किले में आमंत्रित किया तथा अवसर पाकर धोखे से उनकी हत्या करवा दी। चूंकि देवीसिंह के दो पुत्र थे-श्यामसिंह व सबलसिंह,अतः महाराजा ने सेना की एक टुकड़ी उन दोनों की हत्या के लिए भी भेजी।बिलाड़ा के निकट दोनों गुटों में संघर्ष हुआ, इसमें सबलसिंह वीरगति को प्राप्त हुए। सबलसिंह अपने पुत्र को पोकरण ठिकाने का ठाकुर बनाने चाहते थे,अतः उन्होंने अपने भाई से मरणासन्न अवस्था में ही यह प्रण करवा दिया था कि वह(श्यामसिंह) जोधपुर राज्य में कभी पानी तक नहीं पीयेगा। बात के पक्के श्यामसिंह ने अपने भाई को मुखाग्नि देकर जोधपुर रियासत त्याग दी तथा भरतपुर के जाट राजा जवाहरमल की सेवा में चले गये। जवाहरमल ने उनको अच्छा मान-सम्मान दिया तथा कुछ ही समय में भरतपुर राजदरबार में श्यामसिंह की धाक जम गयी।
    दूसरी ओर पासवान गुलाबराय अपना रूतबा भरतपुर के जाटों को दिखाना चाहती थी,अतः वह महाराजा विजयसिंह की अनुमति से अपने लाव-लश्कर सहित भरतपुर आ गयी। वहां उसने अपने घमंड़ में जाटों को आशीर्वाद भेजे तथा राजा जवाहरमल को स्वयं के समान ओहदेदार के हिसाब से मुलाकात हेतु बुलावा भेजा। गुलाबराय ने भरतपुर में इतने नखरे दिखाये कि जाट सरदारों को ये नखरे अपना अपमान लगने लगे। अब जवाहरमल ने जाट सरदारों के साथ मिलकर गुलाबराय के डेरे पर रात्रिकाल में हमले की योजना बनाई। इस गुप्त मंत्रणा में श्यामसिंह भी शामिल थे। जवाहरमल ने श्यामसिंह को अपने पिता व भाई की हत्या का बदला लेने के लिए उकसाया तथा गुलाबराय को जिंदा या मृत पकड़ने को कहा।श्यामसिंह ने योजना को अपनी मौन स्वीकृति दी लेकिन मन ही मन वह सोच रहे थे कि यदि गुलाबराय का अपमान होता है तो यह मारवाड़ तथा राठौड़ों का ही अपमान है तथा मारवाड़ महाराजा की पासवान से उनकी उनकी कोई शत्रुता भी नहीं है। यह सोचकर उन्होंने रात्रि को पासवान गुलाबराय को पूरी गुप्त खबर कर दी। समाचार सुनकर गुलाबराय अपने लश्कर सहित जयपुर रियासत की सीमा की ओर भागी। रात्रि को जब जवाहरमल की सेना आयी तो गुलाबराय का डेरा खाली था।जवाहरमल ने आदेश दिया कि उस जाटणी का पीछा कर मार दिया जावे। फौज पीछे भागी लेकिन रास्ते में खड़ी थी श्यामसिंह की छोटी सेना तथा स्वयं श्यामसिंह। लड़ाई में श्यामसिंह घायल हुए लेकिन सेना को आगे नहीं जाने दिया। कुछ सरदार घायल श्यामसिंह को पासवान गुलाबराय के जयपुर स्थित डेरे में ले गये।जहां उनका ईलाज करवाया गया।गुलाबराय श्यामसिंह के अहसान के बोझ तले दबी जा रही थी। उसने श्यामसिंह के पैर पकड़कर उनसे जोधपुर चलने का अनुरोध किया तथा कहा कि जो भी ठिकाना चाहिए वह आपकी नजर होगा लेकिन श्यामसिंह ने कहा कि मैंने जागीर के लिए यह कार्य नहीं किया है वरन राठौड़ों की लाज बचाने के लिए किया है। उन्होंने कहा कि वह वचनबद्ध है कि जोधपुर राज्य का पानी तक नहीं पीयेंगे। उनकी बात सुनकर गुलाबराय उनकी वचनप्रियता की कायल हो गयी तथा उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। श्यामसिंह अंततः जयपुर ही रहे तथा महाराजा विजयसिंह के अनुरोध पर जयपुर महाराजा ने श्यामसिंह को हवेली तथा गीजगढ़ की जागीर दी। गुलाबराय ने श्यामसिंह के छोटे पुत्र इन्द्रसिंह को राजदरबार में बुलवाकर खूब आदर सत्कार किया तथा पुष्कर के पास थावला की जागीर दी जो बाद में इन्द्रगढ़ थावला कहलाया है। 
    श्यामसिंह चंपावत की इस गौरवगाथा पर राजस्थानी साहित्यकार रानी लक्ष्मीकुमारी चूंड़ावत ने राजस्थानी भाषा में 'जबान रो धणी' नामक कहानी भी लिखी है। 
धन्य है श्यामसिंह की वचन परस्ती।
प्रस्तुतिः- महेन्द्र कुमार जोशी

शनिवार, 4 अगस्त 2018

NRC (NATIONAL REGISTER OF CITIZENS)

क्या है एन.आर.सी. का विवाद ?

          हाल ही में देश में एन.आर.सी. अर्थात नेशनल रजिस्टर आॅफ सिटीजन का मुद्दा देश के पूर्वोत्तर राज्य असम में गर्माया हुआ है | इस मुद्दे को लेकर केन्द्र सरकार चौतरफा घिरी हुई दिखाई पड़ रही है ।सरकार पर आरोप है कि असम में लाखों लोगों को एन.आर.सी. में जानबूझकर पंजीकृत नही किया गया है तथा मात्र उपनाम देख कर ही उनके नाम पृथक कर दिये गये हैं। इन आरोपों का सार यही है कि देश की केन्द्र सरकार में स्थापित भारतीय जनता पार्टी एक हिन्दुवादी पार्टी है तथा वह मुसलमानों के साथ अन्याय कर रही है। 
दरअसल बांग्लादेश जब अलग स्वतन्त्र राष्ट्र बना तो बांग्लादेश के मुखिया शेख मुजीबुर्रहमान तथा भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी के मध्य यह समझौता हुआ था कि 25 मार्च 1971 ई. तक असम में रहने वाले नागरिकों की नागरिकता तय की जावेगी। बांग्लादेश से हुए युद्ध के दौरान हजारों-लाखों शरणार्थी भारत में आये थे। नया स्वतन्त्र राष्ट्र बनने के दौरान इन शरणार्थियों को भारत में रहने या वापस बांग्लादेश लौटने की छूट दी गई थी लेकिन बावजूद इसके भी बांग्लादेश से भारत में घुसपैठ जारी हैं। नागरिकता के इसी मसले को लेकर असम में जन आन्दोलन भी हुए थे अतः केन्द्र सरकार के लिए नागरिकता के इस मुद्दे का समाधान करना अनिवार्य था।
एन.आर.सी. की आवश्यकता के संदर्भ में असम के जनसांख्यिकीय आंकडो में हो रहे बदलाव की चर्चा प्रासंगिक है। उल्लेखनीय है कि देश की स्वतन्त्रता से पूर्व वर्ष 1901 ई. में असम में मुस्लिम जनसंख्या 12.40 प्रतिशत थी, जो आगामी 40 वर्षो में वर्ष 1941 ई. में बढ कर 25.72 प्रतिशत हो गई। यह सिलसिला देश की स्वतन्त्रा के बाद भी कायम रहा तथा बांग्लादेश निर्माण के बाद इस क्रम में और भी तेजी आई। बांग्लादेश के घुसपैठियों द्वारा असम की नागरिकता प्राप्त करनें के कारण ही वर्ष 1980 ई में असम छात्र संगठन ने इन घुसपैठियों को बाहर निकालने का आन्दोलन भी छेडा था। वर्तमान में मुस्लिम जनसंख्या में और भी ज्यादा वृद्धि बढती हुई घुसपैठ को प्रदर्शित करती है।
वर्ष 1985 ई. में देश के तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने एन.आर.सी. तैयार करने के निर्देश दिये थे,लेकिन यह योजना किन्हीं कारणों से कार्य रूप में परिणत नही हो पाई। बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने मनमोहन सिंह सरकार को एन.आर.सी. तैयार करने के निर्देश दिये थे तथा देश की सर्वोच्च अदालत के निर्देशानुसार यह प्रक्रिया तभी से चल रही है। इस प्रक्रिया में अब तक करीब 1200 करोड रूपये की राशि खर्च हो चुकी है तथा इस कार्य के सम्पादन में लगभग 62 हजार कर्मचारी कार्य कर रहे है। प्रक्रिया के दौरान असम में अपनी नागरिकता पंजीकृत करवाने के लिए करीब 3 करोड 29 लाख लोगों ने आवेदन प्रक्रिया सम्पन्न की थी, जिनमें से अभी तक 2 करोड 89 लाख लोगों का पंजीयन हुआ है तथा शेष 40 लाख लोगों की नागरिकता अभी तक तय होनी बाकी है। यही विवाद की मुख्य जड है। तथ्य यह भी है कि नागरिकता तय नही होने वाले लोगों में बांग्लादेशी मुसलमानों के अलावा भारत के कई हिन्दू भी शामिल हैं। 
चूंकि यह देश की सुरक्षा तथा शासन व्यवस्था से सम्बन्धित मसला है, अतः केन्द्रीय गृहमन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने पंजीकरण से वंचित रहे व्यक्तियों को आगामी दिनों में सुनवाई का अवसर देने का पूर्ण आश्वासन दिया है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी देश की केन्द्र सरकार कों बिना किसी भेदभाव के वंचित लोगों की आपत्तियाँ दर्ज करने के निर्देश दिये हैं। यह एक बहुत बडा अभियान है जिसमें कमियाँ रहनी स्वाभाविक है, तथा जिन्हें सुधारने को केन्द्र सरकार एवं सर्वोच्च अदालत तैयार है। यह मुद्दा वास्तव में हिन्दू-मुस्लिम अथवा राजनीति का नही वरन् नागरिकता का है, जो देश के संविधान के प्रावधानों के अनुरूप निर्धारित की जानी है। अन्तिम निर्णय का देश को इन्तजार है।
                                    प्रस्तुति- महेन्द्र कुमार बोहरा
                                    केशव नगर वार्ड नं0 29 फलोदी
                                        मों0 9928866498

  • आंकडे व तथ्य विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित आलेखो पर आधारित है।


              

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