जंतर-मंतर
कनाट प्लेस (नई दिल्ली) के पास, संसद मार्ग पर जंतर-मंतर नाम की वेध शाला है। इसमें ईंट-पत्थर से बने खगोल विद्या सम्बंधी कई यंत्र है। पहले यह इलाका माधोगंज कहलाता था।
जयपुर के जंतर-मंतर का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह ने 1710ई. में कराया। कुछ इतिहासकार इसके निर्माण का वर्ष 1724ई. बताते हैं। मुहम्मद शाह रंगीला ने उन्हें आगरा और मालवा का गवर्नर बनाया था। इनके समय में मुगलों की स्थिति उतनी मजबूत नहीं थी। राज काज में अव्यवस्था का माहौल था। जयसिंह का काफी समय लडाईयों में लग जाता था। लेकिन सैनिक होने के साथ-साथ वे बहुत बडे विद्वान भी थे। इन्हें गणित और खगोल विज्ञान से बहुत लगाव था। इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम और यूरोपियन स्कूलों से कई किताबें इकट्ठी कीं। कुछ किताबों का अनुवाद कराया। खगोल विद्या के जानकारों को जयपुर बुलाया। वर्षों की मेहनत और खोज के आधार पर इन्होंने जन्तर-मन्तर के यन्त्रों का निर्माण कराया। इनका निर्माण ऐसे समय हुआ जब वैज्ञानिकों के पस केवल अनगढ़ यंत्र थे। जन्तर-मन्तर के यंत्र बहुत ठोस थे। इनसे की गई जांच पूरी तरह से सही होती थी। महाराजा जयसिंह ने इन यंत्रों की सहायता से 7 वर्षों तक नक्षत्रों की जांच की। एक तालिका बलाई। फिर भी इन्हे संतोष नहीं मिला। जयपुर, उज्जैन, बनारस और मथुरा में भी वेधशालाएं बनवाई। वहां से नक्षत्रों का अध्ययन होता था, फिर उनके और जंतर-मंतर के नतीजों को मिलाया जाता था। एक से नतीजे निकलने के बाद की जानकारी सही होती थी। इतनी मेहनत के बाद नक्षत्रों की चाल का पता करने वाली किताबें पूरी तौर से सही बन पाई।
जंतर-मंतर में चार तरह के यंत्र लगे हुए थे- 1. सम्राट यंत्र, 2. जयप्रकाश, 3. राम यंत्र, 4. मिश्र यंत्र। इनमें से कई नष्ट हो चुके हैं। समय-समय पर इनकी मरम्मत होती रही है, लेकिन जानकारी के बिना की गई मरम्मत से भी बर्बाद हो गए हैं।
आज हमारा विज्ञान काफी उन्नत है। ग्रह, नक्षत्रों के अध्ययन करने के लिए कई आधुनिक यंत्र बन चुके हैं। लेकिन आज से चार सौ साल पहले इस क्षेत्र में उठाया गया यह कदम सचमुच तारीफ के काबिल है।
-महेंद्र कुमार जोशी
बाण गंगा
गंगा के नाम से सम्बन्धित ऐसा एक पावन तीर्थ-स्थल बिलाडा नगर के उत्तर में लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महादानी राजा बलि ने त्रिलोकी का राज्य और इन्द्र सिंहासन पाने के लिए सौ यज्ञ अलग-अलग स्थान पर किये थे। उसमें से पांच यज्ञ बिलाडा नगर के पास पंचायाग (जिसका अपभ्रंश रूप पिचियाक है) स्थान पर किये थे। यज्ञ में पवित्र गंगा जल की आवश्यकता थी। तब राजा बलि ने गंगा को अपने यज्ञ-अनुष्ठान में आने का निमन्त्रण दिया और गंगा-मैया की पूजा-अर्चना के बाद विधि विधान के अनुसार एक बाण पृथ्वी पर मारा। जिस स्थान पर बाण मारा उसी स्थान पर जल की धारा फूट निकली, उसे बाण-गंगा कहा जाने लगा। बाण गंगा जल-धारा इस धरती पर जब से बहने लगी है, यह धरती हरी-भरी बन गई है।
बाण-गंगा का मुख्य कुण्ड पुरूषों (मर्दाना) के कुण्ड के नाम से भी जाना जाता है। इसे निज कुण्ड भी कहते है। पानी से भरे हुए इस कुण्ड की लम्बाई व चौडाई 55 फुट तथा 45 फुट है। अन्दर पत्थर की बडी-बडी बुर्जें हैं। आश्चर्य होता है कि प्राचीन काल में बिना मशीनों के बडी-बडी बुर्जें किस प्रकार पानी में उतारी गईं होंगी पानी के भीतर बांधई में लोहा, शीशा, लकडी व चूना भी काम में लिया गया था। बाण गंगा के मुख्य कुण्ड के पश्चिम में हनुमानजी (बजरंग बली) का मन्दिर हैं। मन्दिर की प्रतिमा बहुत पुरानी है।
निज कुण्ड के दक्षिण में दो बडी-बडी छतरियां (स्मारक) हैं। इनमें पूर्व दिशा की तरफ बनी छतरी परम तपस्वी दीवान श्री रोहितासजी की छतरी के नाम से जानी जाती है। इसके पास वाली छतरी श्री भगवानदाजी दीवान साहब की है, इन दोनों छतरियों के पास जो छतरी है, वह दीवान रोहितासजी के बडे भाई चौथजी की छतरी है।
इन दोनों छतरियों (स्मारकों) के सामने पश्चिम की तरफ गंगा माई का प्राचीन मन्दिर है जिसका अब जीर्णोद्धार हो चुका है। इन दोनों छतरियों (स्मारकों) के सामने पश्चिम की तरफ गंगा माई का प्राचीन मन्दिर है जिसका अब जीर्णोद्धार हो चुका है। चारभुजाधारी गंगा माई के सिर पर मुकुट और शरीर पर वस्त्राभूषण बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं।
गंगा माई के मन्दिर के पास महादेवजी का एक पुराना मन्दिर है। इसमें राजा बलि को पाताल भेजने से जुडी मूर्ति देखने योग्य हैं, जो बहुत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। यहां एक बहुत बडा प्राचीन देवल भी है।
प्रस्तुति- महेन्द्र कुमार जोशी।
बाण-गंगा का मुख्य कुण्ड पुरूषों (मर्दाना) के कुण्ड के नाम से भी जाना जाता है। इसे निज कुण्ड भी कहते है। पानी से भरे हुए इस कुण्ड की लम्बाई व चौडाई 55 फुट तथा 45 फुट है। अन्दर पत्थर की बडी-बडी बुर्जें हैं। आश्चर्य होता है कि प्राचीन काल में बिना मशीनों के बडी-बडी बुर्जें किस प्रकार पानी में उतारी गईं होंगी पानी के भीतर बांधई में लोहा, शीशा, लकडी व चूना भी काम में लिया गया था। बाण गंगा के मुख्य कुण्ड के पश्चिम में हनुमानजी (बजरंग बली) का मन्दिर हैं। मन्दिर की प्रतिमा बहुत पुरानी है।
निज कुण्ड के दक्षिण में दो बडी-बडी छतरियां (स्मारक) हैं। इनमें पूर्व दिशा की तरफ बनी छतरी परम तपस्वी दीवान श्री रोहितासजी की छतरी के नाम से जानी जाती है। इसके पास वाली छतरी श्री भगवानदाजी दीवान साहब की है, इन दोनों छतरियों के पास जो छतरी है, वह दीवान रोहितासजी के बडे भाई चौथजी की छतरी है।
इन दोनों छतरियों (स्मारकों) के सामने पश्चिम की तरफ गंगा माई का प्राचीन मन्दिर है जिसका अब जीर्णोद्धार हो चुका है। इन दोनों छतरियों (स्मारकों) के सामने पश्चिम की तरफ गंगा माई का प्राचीन मन्दिर है जिसका अब जीर्णोद्धार हो चुका है। चारभुजाधारी गंगा माई के सिर पर मुकुट और शरीर पर वस्त्राभूषण बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं।
गंगा माई के मन्दिर के पास महादेवजी का एक पुराना मन्दिर है। इसमें राजा बलि को पाताल भेजने से जुडी मूर्ति देखने योग्य हैं, जो बहुत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। यहां एक बहुत बडा प्राचीन देवल भी है।
मावजी महाराजा की पुण्य भूमि: बेणेश्वर धाम
रंग रंगीला राजस्थान विविध जातियों और संप्रदायों के पर्वों तथा मेलों के कारण भी स्वयं में एक अनूठी संस्कृति समाये हुए है। राजस्थान के धुर दक्षिण में स्थित बेणेश्वर धाम भी प्रदेश की इसी अनूठी संस्कृति के बहुरंगी चित्रांकन की बेजोड़ रचना करता है। आदिवासियों का कुंभ कहलाने वाला यह स्थल डूंगरपुर तथा बांसवाड़ा की सरहदों पर स्थित है। त्रिदेवों के मंदिर का संगम स्थल होते हुए भी यहां का मुख्य आकर्षण शिव मंदिर है।
कहा जाता है कि प्राचीन काल में इस स्थान पर बेण अर्थात् बांस के पेड़ों की प्रचुरता थी, अतः स्थल का नाम बेणेश्वर धाम पड़ा। कुछ आख्यानों के अनुसार यहां के बणैला शिव मंदिर को बेणका ईश्वर कहा जाता था, अतः इस स्थल का नाम शिव मंदिर के कारण बेणेश्वर धाम पड़ा। धर्म शास्त्रों के अनुसार प्रहलाद के पौत्र और विरोचक के पुत्र दैत्याराजबलि ने यहां यज्ञ किया था। डूंगरपुर जिले के साबला ग्राम के पास करीब 240 बीघा क्षेत्र में बना गृह स्थल एक टापू है जो सोम-माही-जाखम नदियों के संगम स्थल पर स्थित है। वर्तमान में साबला पंचायत समिति है, तथा यहां के मेले की समस्त व्यवस्थाएं जिला प्रशासन तथा पंचायत समिति द्वारा संपादित की जाती है। यह मेला माघ शुक्ल एकादशी से कृष्ण पंचमी तक अर्थात् कुल दस दिन तक भरता है। मेले में तीन राज्यों राजस्थान, गुजरात तथा मध्यप्रदेश के लोग भाग लेते है। मुख्य मेला पूर्णिमा को होता है।
मेले में भक्तगण मावजी महाराज की जय-जयकार करते हैं। मावजी महाराज इस क्षेत्र के प्रसिद्ध संत हुए हैं जिनका जन्म 18वीं सदी में सांवला में हुआ था। इन्हें श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है।मावजी महाराज ब्राह्मण कुल के दालम ऋषि के पुत्र थे तथा उनकी माता का नाम केसर बाई था। इनका जन्म 28 जनवरी 1715ई. का माना जाता है। मावजी ने छोटे-मोटे करीब 750ग्रंथ लिखे थे। ज्योतिष को सरल करने के लिए विद्वान मावजी ने 64 कोठों की निष्कलंक सुकनावली बनाई जो वागड़ से संपादित श्रीशुभवेला पंचांग में प्रकाशित की जाती है। मावजी महाराज ने सोमसागर,, प्रेमसागर, मेघसागर, रतनसागर एवं अनंतसागर नामक पांच ग्रंथों की रचना की थी। इन्हीं ग्रंथों को वागड़ी भाषा (डुंगरपुर तथा बांसवाड़ा का क्षेत्र वागड़ कहलाता है। इस प्रदेश की भाषा वागड़ी है।) में चोपड़ा कहा जाता है। यह भी माना जाता कि यहां के शिव मंदिर में ही जिसका निर्माण करीब 500 वर्ष पूर्व डूंगरपुर के महारावल आसकरण ने करवाया था, मावजी ने चोपडे की रचना की थी। चोपडे में अनेक भविष्य वाणियों का संकलन है। ऐसा विश्वास है कि ये भविष्यवाणियां अब तक सही साबित हुई हैं। मावजी महाराज की प्रमुख गादी साबला में हैं।
मावजी महाराज के देवलोक प्रयाग के बाद उनकी पुत्रवधु जनकुंवरी लगभग 80 वर्षों तक गादीपति रहीं। उन्होंने बेणेश्वर में हरि मंदिर (श्रीकृष्ण मंदिर) का निर्माण उस स्थान पर करवाया जहां मावजी महाराज अपनी साधना किया करते थे। यह स्थान आबूदरा कहा जाता है। मेले की शुरूआत इसी मंदिर पर साबला गादी के महंत द्वारा ध्वजारोहण के साथ होती है। यहां त्रिदेवों के मंदिर के अलावा भी कई मंदिर हैं। आदिवासियों के साथ ही विविध संप्रदायों के अमीर तथा गरीब लोगों के अलावा विदेशी पर्यटक भी मेले का पूरा आनंद लेते हुए दिखाई पड़ते है। आजकल मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा कई खेल प्रतियोगिताऐं भी आयोजित की जाती हैं, जिनसे मेले का आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। इस क्षेत्र की प्रमुख उक्ति हैः-
महीसागर नु पाणी नें मावजी नी वाणी।।
-महेंद्र कुमार जोशी
-महेंद्र कुमार जोशी
मारवाड़ का सिरमौर: मेहरानगढ़
यदि राजस्थान को किलों का प्रांत कहा जाये तो कोई अतिशयोेक्ति नहीं होगी। यूूं तो राजस्थान की अनेक रियासतों के किले इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखवा चुके है,इन्ही में से एक है मारवाड़ का सिरमौर मेहरानगढ़................
जोधपुर से पूर्व मारवाड़ की रियासत मंड़ोर थी लेकिन यहाँ के तात्कालिक महाराजा राव जोधा को मंड़ोर असुरक्षित लगा। तब उन्होने मंड़ोर से 10किमी.दूर चिड़ियाटूंक नामक पहाड़ी पर किला बनाने का निर्णय लिया। यह पहाड़ी चिड़ियानाथजी महाराज की तपोस्थली थी तथा यह पहाड़ी अनेक लोगों के साथ-साथ पशु-पक्षियों का भी निवास स्थल थी। इस किले के निर्माण के बारे में एक कहानी भी प्रचलित है।
कहा जाता है कि राव जोधा के सैनिकों द्वारा यहां(चिड़ियाटूक पहाड़ी) से चिड़ियानाथजी महाराज के साथ-साथ निवास कर रहे लोगों तथा पशु-पक्षियों को भी हटाया गया, तब चिड़ियानाथजी महाराज ने राव जोधा को श्राप दिया कि इस क्षेत्र में हमेशा पानी की कमी रहेगी। महाराज के श्राप का असर आज भी दिखाई पड़ता है।
यह दुर्ग 1459ई. में राव जोधा द्वारा बनवाया गया। इसकी नींव 12 मई 1459 ई. को रखी गयी| इसकी आकृति मोर के समान होने के कारण इसे मयूरध्वजगढ़ कहा जाता है। इसके अन्य नाम भी प्रचलित है-गढचिंतामणी तथा मिहिरगढ़ ।
इस किले को लेकर प्रसिद्ध कहानी यह भी है कि जब राव जोधा यह दुर्ग बनाने जा रहे थे तब ज्योतिषी गणपतदत्त ने उन्हें कहा कि अगर इस दुर्ग की नींव में कोई भी व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से जीवित समाधी लेता है तो यह दुर्ग इसी राजवंश के पास ही रहेगा तभी राजाराम मेघवाल ने इस दुर्ग की नींव में जीवित समाधी ली थी। राजाराम मेघवाल को यह वादा किया गया था कि उनके पश्चात राठौड़ों द्वारा उनके परिवार की देखभाल की जायेगी। उसी दिन से लेकर आज तक राजाराम जी के वंशज राजबाग में ही रहते है। इस जगह को राजाराम मेघवाल उद्यान भी कहते है।
यह दुर्ग जोधपुर शहर के धरातल से 125मी. की ऊँचाई पर है। यह दुर्ग चारों ओर से अभेद्य प्राचीरों से घिरा है तथा यह अपनी बारीक नक्काशी और विशाल प्रांगण के लिए विश्वभर में ख्याति प्राप्त है। इस दुर्ग के अंदर कईं शानदार महल व स्मारक बने हुए है। इनमें से मोती महल, फूल महल, शीशमहल, सिलेहखाना, दौलतखाना और शृंगार चैकी उल्लेखनीय है। यहां स्थित संग्रहालय में जोधपुर के शासकों और राजपरिवारों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शाही वस्तुओं के अलावा युद्ध में काम आने वाले औजारों और हथियारों को भी संग्रहित किया गया है। इस किले में शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित मस्जिद और राजा मानसिंह द्वारा निर्मित पुस्तक प्रकाशमहल स्थित है। विदेशी लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने इस किले के निर्माण को परियों और देवताओं की करामात कहा है।
इस किले में कुल सात दरवाजे है जिनमें से सबसे प्रसिद्ध द्वारों का उल्लेख नीचे किया गया हैः-
जयपोलः- इसका निर्माण महाराजा मानसिंह ने 1806ई. में जयपुर और बीकानेर पर युद्ध में मिली जीत के उपरान्त करवाया था।
फतेहपोलः- इसका निर्माण 1707ई. में मुगलों पर मिली जीत के उपलक्ष्य में महाराजा अजीतसिंह ने करवाया था।
लोहपोलः- यह किले का अंतिम द्वार है जो किले के परिसर के मुख्य भाग में बना हुआ है, तथा इसके बांयी तरफ ही रानियों के हाथों के निशान है,जिन्होंने 1843ई. में अपने पति महाराजा मानसिंह के अंतिम संस्कार में खुद को कुर्बान कर दिया था।
किले के आकर्षण का एक कारण यहां के शानदार शाही महल है। ये महल यहां की स्थापत्य कला को एक अन्य स्तर पर ही ले जाते है। यहां की शानदार मीनाकारी और नक्काशी देखते ही बनती है। दुर्ग की स्थापत्य के बेजोड़ नमूने यहां के प्रमुख महल निम्न हैः-
मोती महलः- इसका निर्माण महाराजा शूरसिंह द्वारा करवाया गया। इसे वर्तमान में राजकीय संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। मेहरानगढ़ दुर्ग के सभी महलों में मोतीमहल सबसे सुंदर व आकर्षक महल है।
शीश महलः- विशाल दुर्गों में शीशमहल का होना आम है लेकिन मेहरानगढ़ दुर्ग के शीशमहल सबसे भिन्न है। शीशमहल की दीवारों पर छोटे-छोटे कांच के टुकड़ों को जोड़कर नयी आकृति प्रदान की गयी है।
इन शीशों पर विशेष प्रकार का पेंट तथा ड़िजाईन की हुई है। जिससे इनकी चमक आंखों पर भी नहीं पड़ती और ये पर्याप्त मात्रा में चमकदार भी है।
जोधपुर मेहरानगढ़ का शीशमहल वाकई में स्थापत्य कला का विशिष्ट उदाहरण है।
फूल महलः- इसका निर्माण 18वीं सदी में महाराजा अभयसिंह द्वारा करवाया गया।
पत्थर की बारीक खुदाई व कोराई के लिए प्रसिद्ध। इस महल का उपयोग राजपरिवार में खुशी के अवसर पर किया जाता है। कईं बार राजा महाराजा यहां नृत्य के आयोजन भी कराते थे तथा यहां महफिलें भी सजाई जाती थी।
तख़्त विलासः- इसका निर्माण यहां के तत्कालीन महाराजा तख्तसिंह द्वारा करवाया गया। ये कांच के गोलों से सुसज्जित महल है।
विलासिता, शाहीपने और भव्यता के अलावा ये किला अपनी सुरक्षा प्रणाली से भी लोगों को आकर्षित करता है। इसकी सुरक्षा का मूल यहां रखी विशाल तोपें है जो विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। ये तीन तोपें निम्न हैः-
1. किलकिला
2. गजनी खां
3. शम्भूबाण
जसवंत थड़ाः-इस दुर्ग के ठीक सामने ही संगमरमर से निर्मित्त एक भव्य महल बना है जो जसवंत थड़ा के नाम से जाना जाता है। सफेद संगमरमर का होने तथा भव्यता की दृष्टि से ताजमहल के समान होने के कारण इसे राजस्थान का ताजमहल भी कहते है।
इसका निर्माण 1899ई. में जोधपुर के महाराजा सरदार सिंह जी ने अपने पिता महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1888-1895ई.) की याद में करवाया। यह स्थान जोधपुर राजपरिवार के सदस्यों के दाह संस्कार के लिए सुरक्षित रखा गया।
श्रृंगार चौकीः- महाराजा तख्तसिंह द्वारा निर्मित्त चौकी। यहीं पर ही उत्तराधिकारियों का राजतिलक किया जाता है।
चामुंड़ा माता मंदिरः- जोधपुर के राजपरिवार की कुलदेवी मां चामुंड़ा माता का मंदिर भी यहां बहुत ही ख्याति प्राप्त है। इसकी स्थापना राव जोधा ने 1460 के दशक में मंड़ोर से मूर्ति लाकर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवाकर की थी। जोधपुर के लोगों में मां चामुंड़ के प्रति अटूट भक्ति तथा असीम स्नेह है।
किन्तु मां के दरबार में 30सितम्बर 2008 के दिन अत्यंत दिल दहला देने वाली घटना घटित हुई। यहां नवरात्रा के इस पावन दिन पर सुबह के समय अचानक भगदड़ मच गई। जय माता दी के जयकारे अचानक सिसकियों और हे! मां में बदल गये। इसके कारण एक दो ही नहीं बल्कि 217 लोगों की मृत्यु हो गयी।
मां दिवंगत आत्मांओं को शांति व मोक्ष प्रदान करे ।
इसकी जांच के लिए जसराज चोपड़ा कमेटी का गठन किया गया।
-जयंत (राज) छंगाणी।
मेबाइल नं. 8559891787
सारणेश्वर जहां एक दिन रेबारियों का रहता है अधिकार
वर्ष 1298 ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने सिद्धपुर के सोलंकी राजवंश की सत्ता उखाड कर वहाँ अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। इस क्षेत्र में रूद्रमाल महादेव का मंदिर दर्शनीय तथा प्रसिद्ध था। धर्मान्ध अलाउद्दीन खिलजी ने मंदिर को ध्वस्त करके मंदिर के शिवलिंग को उखडवाया तथा कुछ गायों की हत्या कर गायों के रक्त रंजित चमडे में शिवलिंग को लपेटने को कहा। शिवलिंग को गौचर्म में बंधवाकर उसे हाथी के पैरों में जंजीरो से बांधकर वह सुल्तान पवित्र शिवलिंग को घसीटता हुआ दिल्ली की ओर ले चला। जब खिलजी चन्द्रवती नगरी के पास से गुजर रहा था तो यह सूचना सिरोही के महाराजा विजय राज सोनगरा, जो उनके भाई थे तथा उन्होनें मेवाड के महाराणा रतन सिंह (रानी पद्मनी के पति) को पत्र लिखकर इस बारे में सूचित किया तथा सहायता मांगी। सिवाणा की पहाडियों के पास विजयराज की सेना दिल्ली सल्तनत से जा टकराई तथा इसी समय कान्हडदेव के पुत्र वीरमदेव तथा मेवाड के सैन्यदल की सहायता से मुस्लिम सेना से विजयराज ने शिवलिंग छीन लिया। मुस्लिम भाग छूटे तथा दीपावली के दिन शुक्ल कुंड के सामने पुनः रूद्रमाल के शिवलिंग की विधिविधान से पुनः स्थापना की गई। इस भयानक युद्ध में दुश्मनों की बहुत क्षति हुई थी अतः मंदिर का नाम क्षरणेश्वर महादेव मंदिर रखा गया जो कालांतर में सारणेश्वर के रूप में विख्यात हुआ।
दूसरी ओर हार के अपमान से तिलमिलाये अलाउद्दीन ने 10 माह बाद ही 1299 ई. में सिरोही पर आक्रमण कर राजा विजयराज को मृत्यु दंड देने का प्रण किया। सिरोही की सेना अपर्याप्त थी लेकिन स्थानीय रेबारी समुदाय ने सिरोही की अंबेश्वर तथा सारणेश्वर पहाडियों के बीच में सेना की जी जान से सहयता की। इस भीषण संघर्ष में मुस्लिम सेना एक बार फिर हार का सामना करना पडा। सेना तथा रेबारियों की जीवटता तथा अदम्य इरादों के आगें खिलजी की सेना को शिकस्त मिली। इसी विजय के उल्लास में आज तक रेबारी समुदाय को सम्मान देते हुए एक दिन के लिए सारणेश्वर की अधिकारिता रेबारियों को दी जाती है।
प्रस्तुति- महेन्द्र कुमार जोशी।
सन्दर्भ पाथेयकण- दिसम्बर 2016
राजस्थान का गौरव: कुुम्भलगढ़ दुर्ग
भाग-1
यूं तो राज्य का इतिहास यहां के लोगों की प्रबन्धन क्षमता और कार्य कुशलता के नमूनों से भरा पड़ा है, साथ ही यहां का इतिहास अपने सुरक्षा प्रबन्धन को लेकर भी विशिष्ट बन जाता है। लोगों की कार्य कुशलता यहां की प्राचीन धरोहरों से साफ तौर पर देखी और समझी जा सकती है।बात जब सुुरक्षा की आती है तो यहां के दुर्ग अभेद्द माने जाते है। यहां के किलों को देखते ही आप राजस्थानी लोगों के कारीगरी दिमाग और अद्वितीय सुरक्षा प्रबन्धन के कायल हो जायेंगे।
राज्य के किले राज्य इतिहास को शानदार और अति रोमांचकारी बनाते है। दुर्गों की बात की जाये तो यहां का हर दुर्ग विशिष्ट है। हर किला अपने आप में अनूठी कारीगरी की मिसाल है। हर किला राज्य इतिहास में अपना मजबूत वर्चस्व रखता है।
अनेक दुर्गों में कुम्भलगढ़ दुर्ग भी काफी महत्वपूर्ण है। तो एक नजर कुम्भलगढ़ पर....................
इतिहास
माना जाता है कि इस किले का सर्वप्रथम निर्माण मौर्य सम्राट अशोक के पौत्र राजा सम्प्रति ने तीसरी सदी में करवाया था, कुछ इतिहासकार इसे छठी सदी में भी मानते है।उनके बाद मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने प्राचीन दुर्ग के अवशेषों पर इसे बनाने का निर्णय लिया। इस दुर्ग का वास्तुकार मण्डन था। यह दुर्ग कुम्भा द्वारा बनाये गये 84 दुर्गों में से एक है।इसका निर्माण कार्य 1443ई. से 1458ई.(करीब 15 वर्ष) तक चला। कुछ इतिहासकार इसका निर्माण काल 1438ई. से 1458ई. तक भी मानते है। इसका निर्माण पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के ढ़लवाये जिन पर इसका नाम अंकित था।यह किला अपनी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर हमेशा सुर्खियों में रहा।
महान योद्धा महाराणा प्रताप का जन्म भी इसी दुर्ग में हुआ था। इसी किले में महाराणा सांगा का बचपन बीता। पन्नाधाय ने उदयसिंह का पालन-पोषण भी इसी दुर्ग में किया था।यह किला मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी के रुप में विख्यात था।
स्थिति
यह दुर्ग एक गिरी दुर्ग है जो एक विकट पहाड़ी पर उदयपुर से करीब 70 कि.मी. दूर राज्य के राजसमन्द जिले के कुम्भलगढ़ में स्थित है।यह 25°9‘अक्षांश तथा 73°35‘देशान्तर पर स्थित है।
मारवाड़ तथा मेवाड़ की सीमा पर स्थित।
राजसमंद जिले के केलवाड़ा तहसील से पश्चिम की ओर एक टेढ़ी-मेढ़ी सड़क इस दुर्ग तक जाती है।
विशेषताएं
पहाडियों की गोद और प्रकृ ति की सुरक्षा पाकर यह किला लगभग अजेय ही रहा इसी वजह से इसे अजेयगढ़ के नाम से जाना जाता था।यह किला एक दुर्गम पहाड़ी पर बना होने के कारण अन्य किलों से सुरक्षित माना जाता हैं।यह किला कईं घाटियों व पहाड़ियों को मिलाकर बनाया गया।प्रथम द्वार ‘आरटेपोल‘ है जो कि पहाड़ी घेराव का मुख्य द्वार है न कि दुर्ग का। इसके बाद ‘हल्ला पोल‘ है यह भी पहाड़ी घेराव का द्वार है।इसके अभेद्य होने का प्रमुख कारण है इसकी अद्वितीय दीवार जो 36 कि.मी. लंबी होने के साथ ही इतनी चैड़ी है कि इस पर 10 घुड़सवार आसानी से दौड़ सकते है। यह दीवार चीन की दीवार(the great wall of china) के बाद दुनिया की दूसरी सबसे लंबी दीवार है।इस दीवार का इतनी लंबी होने के पीछे एक दिलचस्प कथा प्रचलित है-
कहा जाता है कि जब इसका निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ तो दीवारें रास्ता बनाती चली गयी। दीवार जैसे जैसे आगे बढ़ी तो पहाडियां स्वतः रास्ता देती गयी। दीवार थी कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी। कारीगर भी थक चुके थे। अंततः राजा ने किसी संत को बुलाकर इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि यहां पर कोई देवी का वास है जो इसे पूरा नहीं होने दे रही है। महाराणा चिंतित हो गये और हो भी क्यों नहीं आखिर सवाल सुरक्षा का था। तो महाराणा ने कोई उपाय पूछा फिर संत ने कहा कि यह समस्या तभी हल हो सकती है जब यहां किसी जीवित व्यक्ति की बलि दी जाए।
अब एक और परेशानी खड़ी हो गयी कि कौन जीवित आदमी स्वेच्छा से बलि के लिए तैयार होगा। महाराणा को चिंतित देख कर संत ने उनकी चिंता को दूर कहते हुए कहा कि वे खुद इस नेक कार्य के लिए तैयार है। संत ने कहा कि वेेे चलते चलते जहां पर थककर रुक जाएंगे वहीं पर उनकी बलि दे दी जाए। तो संत करीब 36 कि.मी. आगे चलकर एक स्थान पर रुके वहां पर राजा के सैनिकों ने संत का सिर धड़ से अलग कर दिया। जहां पर सिर व धड़ गिरे वहां पर दो अलग प्रवेश द्वार बनाये गये। जहां पर सिर गिरा वहां मुख्य द्वार हनुमान पोल बनाया गया।
दोनों पहाड़ी द्वारों को पार करने पर किले का मुख्य द्वार ‘हनुमान पोल‘ तथा दुर्ग का पूर्वी भाग आसानी से देखा जा सकता है।यहां माण्डव्यपुर से लायी गयी हनुमान जी की मूर्ति स्थापित की गयी है। यह मूर्ति कुम्भा के माण्डव्यपुर विजय का प्रतीक है।
- दिनेश कुमार जोशी
संदर्भ -
- विकीपीडिया
- special thanks toराज छंगाणी
- राजस्थान का इतिहास - प्रो. गोपीनाथ शर्मा
राजस्थान का गौरव: कुुम्भलगढ़ दुर्ग
भाग-2
लघु दुर्गःकटारगढ़
यह संभवतः एकमात्र किला है जिसमें दुर्ग के अंदर ही एक और लघु किन्तु सुरक्षित दुर्ग बना है।जिसे सीधी ऊँचाई के कारण कटारगढ़ कहते है। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म भी इसी लघु दुर्ग में हुआ था।इस कटारगढ़ में प्रविष्ट होने से पहले देवी का मंदिर है।ऐसा रिवाज था कि युद्ध अभियान के अवसर पर महाराणा देवी की पूजा करके ही निकलते थे तथा विजय प्राप्त करके लौटने पर भी देवी का आशीर्वाद लेकर ही अपने महलों में प्रवेश करते थे।इसके अंदर के रास्ते टेढ़े-मेढ़े है, जिन्हें जोड़ने वाली पोलें निम्न है-
विजय पोल, भैरव पोल, नीबू पोल, चैगान पोल, पागड़ा पोल तथा गणेश पोल।
ऊँचे स्थानों पर महल,मंदिर व आवासीय इमारतें बनायी गयी। समतल भूमि कृषि कार्य के लिए छोड़ दी गयी।यहाँ के खण्ड़हरों से पता चलता है कि कुम्भा ने खाद्यान्न एवं युद्धोपयोगी सामग्री को एकत्र करने के लिए बड़े-बड़े गोदाम बना रखे थे। ताकि किला युद्ध के समय भी आत्मनिर्भर हो सके। यह कुम्भा की दूरदर्शिता को भी दर्शाता है। हाथियों के बाड़े तथा घोड़ों के अस्तबल भी इसी लघु दुर्ग में थे।
महाराणा का निजी कमरा सबसे ऊपरी भाग में स्थित है। उसका दरवाजा अपेक्षाकृत कम लम्बा है तथा कक्ष देखने पर साधारण ही प्रतीत होता है।कुम्भा ने निजी सुविधाओं पर कम से कम खर्च कर जनजीवन सम्बन्धी कार्यों में अपार धनराशि खर्च की यह एक महान त्याग का उदाहरण है।
किले की वातानुुकुलन प्रणाली भी दर्शनीय है। पाइपों की एक लंबी शृंखला प्रत्येक कमरे में वातावरण की ठंड़ी व शु़़़द्ध हवा प्रदान करती है।इसमें सबसे ऊपर कुम्भा महल व बादल महल स्थित है। बादल महल दो आंतरिक खंड़ों जनाना महल व मर्दाना महल में विभक्त है। जनाना महल की पत्थर की जालियों से बाहर का नजारा देखा जा सकता है। इनका(जालियों)प्रयोग रानियों द्वारा दरबार की कार्यवाही देखने में किया जाता था।
दुर्ग में 360 मंदिरों का समूह है जिसमें से 60 हिंदू मंदिर तथा 300 जैन मंदिर है। नीलकंठ महादेव मंदिर का महत्व अन्य मंदिरों से ज्यादा है।
देर शाम होने वाला लाईट एंड साउंड शो भी दर्शनीय है।यह समुद्र तल से करीब 1100 मी. की ऊँचाई पर स्थित है। इतनी ऊँचाई पर बने होने के कारण अबुल फजल ने इस दुर्ग के बारे में कहा है कि यह इतनी अधिक ऊँचाई पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती हैं।जेम्स टाॅड ने इसकी तुलना एट्रुस्कन से की हैं।इस दुर्ग में ही कुम्भा को उसके पुत्र उदय कर्ण ने राज्य लिप्सा में मार डाला था। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप काफी समय तक इसी किले में रहे थे।
इस किले के बारे में मांड गायक अक्सर गीत गाते हैः-
कुम्भलगढ़ कटारगढ़ पाजिज अवलन फेर।
संवली मत दे साजन, बंसुज, कुम्भल्मेर।।
यहां पास ही एक वन्य जीव अभयारण्य भी है। 2013 में कम्बोडिया के नोमपेन्ह में आयोजित वल्र्ड हेरिटेज कमेटी के 37 वें सेशन में कुम्भलगढ़ के किले को वल्र्ड हेरिटेज साइट घोषित किया गया।
-दिनेश कुमार जोशी।
संदर्भः-
- वीकिपीडिया
- राजस्थान का इतिहास - प्रो. गोपीनाथ शर्मा
- special thanks to RAJ CHHANGANI
- m.patrika.com
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