HISTORY

अमर चंद बाठिया 

    1857 एक ऐसा वर्ष जिसे सुनकर ही हर भारतीय के मन में देशभक्ति, विद्रोह, सरफरोशी और संघर्ष जैसी भावनाएँ अनायास ही उमड़ने लगती हैं। एक ऐसा साल जिसने अंग्रेजी हुकुमत को अपनी सोच बदलने को मजबूर किया। एक ऐसा वर्ष जिसने सर्वप्रथम भारतीयों के मन को क्रांति की भावना से सराबोर किया। ऐसी तिथि जिसने शहादत शब्द को पूर्णतः परिभाषित किया। तो एक नज़र उस महान वर्ष के एक वीर पर............  
    यह वाकया उन दिनों का है जब वर्ष 1857 में आजादी के  संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहब और अन्य कई बहादुर सेनानायकों के नेतृत्व में  जुझारू सैनिक अंग्रेजी सेना से लोहा ले रहे थे। शीघ्र ही विद्रोहियों और उनके सेना नायकों के सामने एक बड़ी समस्या यह आ खड़ी हुई कि उनके पास हथियारों की कमी होने लगी और ऐसी स्थिति में संघर्ष को लंबा चलाना दुष्कर प्रतीत हो रहा था। हथियारों के लिए धन आवश्यक था जो उनके पास था नहीं। आर्थिक कमी को दूर करने के लिए उन्हें किसी ऐसे भामाशाहों की आवश्यकता थी जो मुक्त हस्त उनकी मदद कर सके। ऐसे समय आजादी के दीवानों की मदद करने के लिए आगे आए ग्वालियर राजकीय कोष गंगाजली के प्रमुख श्री अमरचंद बांठिया। उन्होंने खजाने के द्वार विद्रोही सेना के लिए खोल दिए।  
    कहा जाता है कि यदि अमरचंद बांठिया ने 1857 के क्रांति वीरों का सहयोग नहीं किया होता तो क्रांतिवीरों के सामने अपने जीवन और संघर्ष को चलाएं रखने की कठिन परिस्थिति पैदा हो सकती थी। संग्राम संघर्ष पूरा होने के बाद इस देश भक्त को अंग्रेजों ने सरेआम फांसी दे डाली। ग्वालियर के इतिहास में 22 जून 1857 की तिथि को अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक माना जाता है। इसी दिन ग्वालियर राज्य के राजकीय कोषागार के खजांची अमरचंद बांठिया को फांसी के फंदे पर लटका दिया था। उन्हें ग्वालियर के सर्राफा बाजार के अंदर नीम के पेड़ से लटका कर फांसी दी गई थी और चेतावनी के रूप में उनका मृतक शरीर इसी प्रकार  कई दिनों तक लटकाए रखा गया था। ऐसे देश प्रेमियों पर देश को नाज है। पूरा भारतवर्ष उनके इस बलिदान का सदैव ऋणी रहेगा
-महेंद्र कुमार जोशी    

मारवाड़ के वीर : अमर सिंह राठौड़ 

 अमर सिंह राठौड़ मारवाड़ नरेश गजसिंह प्रथम के ज्येष्ठ पुत्र थे और ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते गद्दी के दावेदार थे परंतु क्रोधी और उद्दंड होने की वजह से गज सिंह ने अपनी पासवान अनारा बेगम के कहने से अपने जीवनकाल में ही अपने द्वितीय पुत्र जसवंत सिंह प्रथम को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। साथ ही उन्होंने  अमर सिंह को मारवाड़ से चले जाने का आदेश दिया स्वाभिमानी अमर सिंह पिता द्वारा दिए गए काले वस्त्रों को धारण कर काले घोड़े पर सवार होकर मारवाड़  त्याग कर रवाना हुए। इतिहासकारों के अनुसार कई राजपूत सरदारों को भी वह अपने साथ लेकर गए थे और बाद में वे मुगल बादशाह शाहजहां के दरबार में आगरा पहुंचे। अमर सिंह पराक्रमी और युद्ध कौशल के जानकार थे, अतः उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप बादशाह शाहजहां ने राव की उपाधि से नवाजा और काबुल की लड़ाई में वर्ष 1641-42 में अपनी सेना का सेनापति बना कर काबुुुल भेजा। काबुल में अमर सिंह ने विजय प्राप्त की। उनकी इस जीत से प्रसन्न बादशाह शाहजहां ने अमर सिंह को नागौर की जागीर और 4000 मनसब प्रदान किया। अमर सिंह को शिकार खेलने का बहुत शौक था और अपने इसी शौक के चलते वह मुगल दरबार में नियमित रूप से उपस्थित नहीं हो पाते थे। बादशाह इस अनुपस्थिति पर उन पर जुर्माना लगाने की धमकी देता परंतु अमर सिंह पर कोई असर नहीं होता। एक बार बादशाह ने अपने बक्शी सलावत खां को जुर्माना वसूल करने के लिए नागौर भेजा, लेकिन अमरसिंह ने जुर्माने से साफ इंकार कर दिया। सलावत खा ने आगरा में बादशाह को इस की जानकारी दी और कुपित बादशाह ने अमर सिंह को आगरा तलब किया। आखिर अमर सिंह को आगरा दरबार में आना पड़ा। उस समय की दरबारी परंपरा के अनुसार यह रिवाज  था कि कोई मनसबदार बादशाह को सलाम करें तो पहले उसे बक्शी यानी सलावत खां से अनुमति लेनी पड़ती थी। क्योंकि राव अमरसिंह गुस्सैल थे और जवान भी थे और बादशाह के बार-बार बुलाने पर आगरा पहुंचे थे ,उन्होंने बक्शी सलामत खां को पूछे बिना ही बादशाह को मुजरा किया। इस पर सलामत खा ने अमर सिंह को अपशब्द कहते हुए गवार कहने की कोशिश की। इस संबंध में  एक कवि की उक्ति है कि
इत मुख ते गाग्गो  कहियो उत कर लई कटार।।
वार कहन पायो नहीं जमघर हो गई पार।।
    सालावत खां अभी अमरसिंह को गंवार कह भी नहीं पाया था कि अमर सिंह ने अपनी कटार इतनी जोर से फेंकी कि सलावत खां मारा गया और वह कटार सलावत खां के मर्म को भेद कर खंभे से जा टकराई। यदि खंबा बीच में ना होता तो उस कटार से बादशाह को भी चोट पहुंच सकती थी। अमर सिंह के इस आकस्मिक हमले से शाहजहां के राज दरबार में भगदड़ मच गई और तुरंत ही सारा दरबार खाली हो गया। भयभीत बादशाह शाहजहां सिहासन छोड़कर रनवास की ओर भागा। बादशाह को भयभीत देख बेगम ने कारण पूछा जिसका उल्लेख कवि ने इन शब्दों में किया है                                             
बीबी करो नबी को याद खुदा ने जान बचाई है आज।।
   अमर सिंह के इस आक्रमण से राज दरबार में तहलका मच गया ।अमर सिंह शेर की तरह टूट पड़ा और जो भी सामने आया उसकी तलवार से मारा गया ।मामूली अंतराल में मुगल सेना के 5 सेनापति मारे गए और सारा दरबार खून से भर गया ।अमर सिंह की वीरता और साहस पर एक कवि ने निम्नानुसार वर्णन अपनी कविता में किया है                                            
शाहजहां कहै यार सभा माही बार-बार।
अमर की कमर में कहां की कटारी थी।।
शाही को सलाम करें मारियो तो सलावत खां।
दिखा गयो मरोर सूरवीर धीर आगरो।।
मीर उमरावन की कचेडी धुजाय डारी ।
खेलत शिकार जैसे मृगन में बागरो।
कहे पनराज गजसिंह के अमरसिंह ।
राखी रजपूती मजबूती नव नागरो।
पाव सेर लौह से हिलाई सारी पतसाही ।
होती शमसीर तो छिनाय लेतो आगरो।
महेंद्र कुमार जोशी 

गिरी-सुमेल का युद्ध 

   यह प्रसिद्ध घटना उन दिनों की है जब मारवाड़ पर राव मालदेव का शासन था। महान योद्धा राव मालदेव ने अपने श्रेष्ठ रण कौशल से  मारवाड़ का राज्य दिल्ली और आगरा की सीमा तक पहुंचा दिया था। उन्होंने मेड़ता को भी अपने अधिकार में ले रखा था ।इसी वजह से मेड़ता नरेश वीरमदेव जी इन से नाराज़ थे । वीरमदेव जी की नाराजगी मालदेव के लिए बहुत भारी पड़ी। बीकानेर के राव कल्याणमल के छोटे भाई भीमराज दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी की सेवा में थे ।बदले की भावना से वीरम जी  भीमराज के पास पहुंचे और भीमराज की सहायता से शेरशाह सुरी को मालदेव पर आक्रमण के लिए उकसाया। शेर शाह सुरी अपनी पूरी तैयारी के साथ 20000 सैनिकों सहित आगरा से चल पड़ा और सुमेल के मैदान में अपना डेरा स्थापित किया। सूचना मिलने पर राव मालदेव भी अपने 50000 सैनिकों सहित गिरी के मैदान में आ डटे। माल देव उस समय भारत के सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे और उनकी इस विशाल सेना को देखकर शेरशाह भयभीत  हो गया और घबराकर वापस लौटने का निश्चय किया। वीरमदेव जी ने शेरशाह सूरी को आश्वासन दिया और एक चलाकी भरी चाल चली ।उन्होंने बादशाह से 100000 फिरोजशाही स्वर्ण मुद्राएं  लेकर राव मालदेव की सेना में बेचने को भेजी जो वहां से 8 मील की दूरी पर थी। इन मोहरों का मूल्य उन दिनों 19 था जो वीरम जी ने 17 में बिकवा दी। इसके पश्चात वीरम जी ने 100 ढालें मंगवाई और बादशाह के सेवकों के हाथों चालाकी भरे फरमान लिखवा कर ढालों की गात्तियों में सिलवा दिये। अब इन ढालों को भी व्यापारी के माध्यम से राव मालदेव के सरदारों में सस्ती बिकवा दी। वीरमदेव जी की चाल सफल रही। अब वीरम जी ने मालदेव को एक पत्र लिखाए जिसमें उन्होंने संदेश भेजा कि आपने मेरा मेड़ता राज्य छीन लिया है और उसको वापस लेने के लिए मुझे शेरशाह का आश्रय लेना पड़ा पर आपके सभी सरदार न जाने क्यों बादशाह के सेवक बने हैं। हजारों सोने की मुद्राएं उनकी भेजी हुई ली है। यदि आप ही ढालें मंगवा कर  गट्टियों को चीरें तो आपको सब मालूम पड़ जाएगा। पत्र पढ़ते ही मालदेव एकदम चौक गया। पत्र की पुष्टि के लिए मालदेव ने अपने जासूसों को भिजवाया और शीघ्र ही जासूसों ने मालदेव को संदेश दिया कि सेना में बहुत सारी फर्रुख शाही मोहरे आई है। अब मालदेव का सरदारो के प्रति संदेह बढ़ गया था। अतः उन्होंने सरदारो से ढाले मंगवाई और जब ढालो की गिट्टियों को फड़वाया गया तो वास्तव में प्रत्येक ढाल में से शाही फरमान निकला जिसका अर्थ यह था कि जो वादा तुमने मालदेव को पकड़ा देने का किया है उसको जल्दी पूरा करो। इन सब संदेशों को पढ़कर मालदेव अवाक रह गए। जब सरदारों को इस बात की भनक पडी  तो उन्होंने मालदेव को बहुत समझाया लेकिन मालदेव का संदेह नहीं मिटा । इस प्रकार मालदेव उसी रात्रि को सिवाना के पहाड़ों की तरफ चल दिए ।वीरमदेव और शेर शाह का षड्यंत्र सफल रहा। मालदेव के चले जाने पर भी स्वामीभक्त सरदार जेता और कुंपा आदि ने 5 जनवरी 1544 ईस्वी को शाही फौज पर जबर्दस्त धावा बोल दिया। शाही फौज के छक्के छूट गएए उनके पांव उखड़ गए और वे बेतहाशा भागने लगे पर एकाएक शेर शाह  की एक अन्य टुकड़ी और अा मिली। विकट परिस्थितियों में राठौडों को क्षेत्र से हटना पड़ा। कहने को राठौड़ पराजित हुए परंतु शेर शाह राठौडों की वीरता और कुशलता पर आश्चर्यचकित होकर बोला- 
मैं तो मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान की बादशाहत को ही खो देता ।
    इस प्रकार एक बार फिर आपसी फूट ही हिंदुस्तान के लिए नुकसान जनक साबित हुई।
प्रस्तुति:-महेंद्र कुमार जोशी 
सन्दर्भ - स्मारिका 2005 
लेखक - जे के अबोटी 
शक्ति एवं सरस्वती का मेलः महाराजा मानसिंह राठौड (13 फरवरी 1783 ई. से 4 सितम्बर 1843 ई.)

        मारवाड के राठौड राजाओं मे से एक ऐसे दूरदर्शी महाराजा का ज़िक्र आज यहाँ किया जा रहा है, जिन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह अन्दाज़ा लगा लिया था कि अंग्रेज़ी कम्पनी अपनी कूटनीतिक चालों से समूचे हिन्दुस्तान कों गुलामी की जंजीरों में कैद करके ही छोडेगी। इसीलिये उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त अंग्रेज़ों  का विरोध किया तथा अपने समकालीन समस्त रजवाडों के शासकों तथा सरदारों को भी संगठित हो कर अंग्रेज़ों को विरोध की प्रेरणा दी। यहाँ तक कि उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता के कट्टर दुश्मन मराठा सरदार यशवन्तराव होल्कर तथा अप्पा साहब भोंसले को भी अंग्रेजी हुकूमत की परवाह न करते हुए अपने राज्य में वक्त ज़रूरत शरण दी। लाॅर्ड विलियम बैंटिक ने जब अजमेर में शाही दरबार का आयोजन किया तो समस्त रजवाडों के राजाओं के उलट उन्होंने इस दरबार का बहिष्कार किया तथा उस जश्न में हाजिर नही हुए। वे लगातार अंग्रेजी हुकूमत की आज्ञाओं का उल्लंघन करते रहे तथा जीवन पर्यन्त खिराज चुकानें की अंग्रेजों की मांग को अनसुना करते रहे। जी हाँ; यहां ज़िक्र किया जा रहा है मारवाड के महाराजा मानसिंह का । 
महाराजा मानसिंह विद्वान, कवि तथा गुणों के पारखी थे। उनका व्यक्तित्व शक्ति तथा प्रज्ञा का अनूठा संगम स्थल था। उन्होंने बांकीदास तथा अन्य कई साहित्यकारों एवं कलाकारों को अपने राज दरबार में सम्मानित स्थान प्रदान किया था।
महाराजा मानसिंह का जन्म 13 फरवरी 1783 ई. को हुआ था। वह महाराजा विजय सिंह के पाँचवें पुत्र गुमान सिंह के पुत्र थें। बाल्यकाल से ही उन्हें माता-पिता की छत्र-छाया का अधिक सहारा न मिल सका। जब वह मात्र छः वर्ष के थे तब उनकी माता तथा जब वह दस वर्ष के थे तब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। महाराजा विजय सिंह के पुत्र फतेह सिंह, भोमसिंह एवं गुमान सिंह की मृत्यु उनके शासनकाल में ही हो जाने के कारण भोमसिंह के पुत्र भीमसिंह मारवाड के उत्तराधिकारी बने, लेकिन विजय सिंह की प्रेयसी पासवान गुलाब राय भीमसिंह से नाराज थी क्योंकि भीमसिंह ने गुलाब राय के पुत्र तेजसिंह का यह कहकर अपमान कर दिया था कि वह तो पासवास की जाइन्दा औलाद है । इसी वजह से गुलाब राय अपने पुत्र तेजसिंह की मौत के बाद मानसिंह को मारवाड की गद्दी पर बिठाना चाहती थी। इसी उदेश्य से उसने मानसिंह को औपचारिक रूप से अपना दत्तक पुत्र घोषित कर दिया। उसके प्रभाव से महाराज विजयसिंह नें वर्ष 1792 ई. में मानसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, लेकिन राठौड सरदारों को महाराजा का यह निर्णय रास नही आया और उन्होंने अपना जबरदस्त प्रतिरोध महाराजा के समक्ष प्रस्तुत किया। परिस्थितियों को देखतें हुए गुलाब राय नें सुरक्षा की दृष्टि से मानसिंह को अपने वफादार सामन्तों के साथ अपनी जागीर जालौर भेज दिया। इन्हीं परिस्थितियों में 8 जुलाई 1793 ई को महाराजा विजयसिंह का स्वर्गवास हो गया और उनके बाद जोधपुर के सिंहासन पर 20 जुलाई 1793 ई. को भीमसिंह का राजतिलक किया गया। मानसिंह अपने सामन्तों के साथ महाराज भीमसिंह के विरूद्ध छिटपुट विद्रोह करते रहे। 19 अक्टूबर 1803 ई. को भीमसिंह की मृत्यु के उपरान्त  मानसिंह एक मात्र जीवित उत्तराधिकारी थे। अतः जालौर की सेना के सेनापति भण्डारी गंगा राम तथा इन्द्रराज सिंघवी ने मानसिंह से राजसिंहासन प्राप्त करने का अनुरोध किया तथा सामन्तो के अनुरोध को स्वीकार कर वह  राज गद्दी पर आसीन हुए। 5 नवम्बर 1803 ई. रात्रि कों महाराजा मानसिंह द्वारा एक दरबार का आयोजन किया गया जिसमें पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत की अगुवाई में समस्त राठौड सरदारों ने नये महाराजा के प्रति अपनी वफादारी की शपथ ली। 
महाराजा मानसिंह के शासन काल में भीमसिंह के समर्थक सरदारों ने कई परेशानियां खडी कीं, जिनसे पार पाना मानसिंह के लिए एक चुनौती भरा कार्य था। इन सरदारों में सबसे शक्तिशाली पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत थें। 
एक अन्य समस्या थी- नाथों का बढता वर्चस्व। दरअसल जब मानसिंह जालौर में थे तब योगी आयस देवनाथ नें यह भविष्य वाणी की थी कि कार्तिक सुदी छठ ( 21 अक्टूबर 1803 ई) तक मानसिंह जोधपुर के महाराजा बन जायेंगे। चूंकि यह भविष्यवाणी सच साबित हुई, अतः मानसिंह नाथ सम्प्रदाय कें अंध भक्त बन गये। 
तीसरी समस्या उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी से सम्बन्धित थी। राजकुमारी कृष्णा कुुमारी उस समय राजपुताना की सबसे सुन्दर राज कन्या थी तथा उसकी सगाई जोधपुर के महाराजा भीमसिंह के साथ हुई थी। विवाह से पूर्व भीमसिंह की मृत्यु हो जाने के कारण उदयपुर महाराणा ने जयपुर के महाराजा जगतसिंह से कृष्णा कुमारी की सगाई की बात चलाई। महाराजा मानसिंह ने महाराणा को समझानें की कोशिश की कि कृष्णा कुमारी का सम्बन्ध राठौडो में किया जा चुका है, अतः अब उसे कच्छवाहा राजघराने में भेजना न्यायोचित नही है, लेकिन महाराणा ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। परिणाम स्वरूप जोधपुर, उदयपुर तथा जयपुर के राजपरिवारों के मध्य एक लम्बा संघर्ष छिड गया, जिसका त्रासद अन्त राजकुमारी कृष्णा कुमारी द्वारा जहर पीकर आत्महत्या कर लेने से हुआ। यह शान्ति अधिक लम्बे समय तक कायम नहीं रह पायी तथा जयपुर नरेश जगत सिंह ने आखिरकार जोधपुर पर आक्रमण कर दिया तथा 30 मार्च 1807 ई पोकरण ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत ने जोधपुर नगर को घेर लिया। जयपुर और बीकानेर की सेना ने भी इस घेराबन्दी में पोकरण ठाकुर की मदद की। कुछ समय बाद जब जोधपुर की रक्षा करनी कठिन हो गई तब महाराजा मानसिंह ने भण्डारी गंगा राम, इन्द्रराज सिंघवी एवं नथकरण को जेल से रिहा कर अमीर खां पिण्डारी के पास भेजा, जिन्होने लालच देकर अमीर खाँ पिण्डारी को अपने पक्ष में कर लिया। अब अमीर खाँ तथा पृथ्वीराज ने जयपुर शहर पर चढाई कर दी तथा जयपुर शहर में लूटमार प्रारम्भ कर दी। इस घटना की जानकारी मिलते ही जयपुर नरेश जगत सिंह ने जोधपुर से घेरा उठा लिया तथा सेना सहित पुनः जयपुर लौट गये। इस प्रकार पोकरण ठाकुर की योजना नाकामयाब हो गई। यद्यपि कुछ समय बाद जयपुर तथा जोधपुर राजघराने में वैवाहिक सम्बन्धों से पुनः मित्रता स्थापित हो गई। 
चौथी समस्या अमीर खाँ पिण्डारी था जों मारवाड रियासत के लिए सिरदर्द बन चुका था। अमीर खाँ ही इन्द्रराज सिंघवी तथा योगी आयस देवनाथ की हत्या के लिये उत्तरदायी था। 
पाँचवी समस्या राजपूताना में अंग्रेजी सत्ता का बढता प्रभाव था। कठिन आन्तरिक परिस्थितियों के कारण यद्यपि मानसिंह कों अग्रेजो से सन्धि करनी पडी थी, तथापि वे जीवन पर्यन्त अंग्रेजी हुकुमत का विरोध करते रहे थे और यही कारण रहा कि अग्रेजों ने अन्ततः जोधपुर रियासत के विरूद्ध सैन्य अभियान छेड दिया। इस प्रकार चालीस वर्षों के लम्बे उथल-पुथल भरे शासनकाल के बाद 4 सितम्बर 1843 ई. को मण्डोर में महाराजा मानसिंह का स्वर्गवास हुआ । मानसिंह के शासन काल में ही उनके समस्त पुत्रों का देहावसान हो चुका था। अतः उन्होंने महाराजा अजीतसिंह के वंशज तथा ईडर में अहमद नगर के जागीरदार तखत सिंह को गोद ले लिया था एवं अंग्रेज़ी पाॅलिटिकल एजेन्ट के समक्ष तखत सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की इच्छा प्रकट कर दी थी।    
महाराजा मानसिंह प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे तथा कर्नल जेम्स टाॅड के अनुसार उनमें स्वभावगत संयम तथा शिष्टाचार की गरिमा असीमित मात्रा में थी। उनके चरित्र में बाघ के समान भयंकरता तथा समयानुसार पाशविक चतुराई एवं क्रूरता का मेल था। मानसिंह जहाँ एक प्रतिभाशाली बुद्धिजीवी, साहित्य एवं कला के जौहरी थ,े वहीं उनके व्यक्तित्व में एक चालाक षड्यन्त्रकारी के समस्त गुण मौजूद थे। वह स्वयं एक कवि एवं साहित्यकार होने के साथ-साथ कला साहित्य एवं विद्वता के पोषक भी थे। वह संगीत के कद्रदान भी थे तथा खास कर राग माण्ड के शौकीन थे। वह देश के विभिन्न हिस्सों से विद्वानों तथा कलाकारों को आमन्त्रित कर सभाओं का आयोजन करवाते तथा उन्हें मुक्त-हस्त उपहार भी दिया करते थे। उन्होंने जोधपुर में हस्तलिखित पुस्तकों के पुस्तकालय की स्थापना की जो वर्तमान में  महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश के नाम सें प्रसिद्ध है। इस पुस्तकालय में वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति एवं अनेक धार्मिक, पौराणिक तथा राजनैतिक ग्रन्थो का संग्रह है। प्रशासन के क्षेत्र में महाराजा मानसिंह नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों को असीमित अधिकार प्रदान करने के दोषी रहे है। इन नाथों मेें से अधिकांश भ्रष्ट तथा लालची थे , जिन्होंने अधिकांश राजकीय धन हडप लिया, आम जनता से जबरन रिश्वतें लीं, अधिकारियों को डराया-धमकाया एवं स्थान-स्थान पर जनता से लूटमार करने वाले अपने चेलों को नियुक्त करवा दिया। नतीजा यह रहा कि पूरे राज्य में आतंक का साम्राज्य छा गया था। इस प्रकार एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी होते हुए भी, असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी होते हुए भी यह राठौड शासक अपने प्रशासन में असफल रहा। यद्यपि वह एक अनमोल रत्न थे तथापि वह रत्न मात्र सजावट के काम आने वाला रत्न था। फिर भी मारवाड में उनके बारे में यह दोहा प्रसिद्ध है-
जोध बसायो जोधपुर, ब्रज कीनो ब्रजपाल।
लखनऊ काशी अरु दिल्ली, मान कियो नेपाल।।
अर्थात राव जोधा ने अपने नाम से जोधपुर बसाया, महाराजा विजयसिंह ने बल्लभ सम्प्रदाय की भक्ति के कारण इसे ब्रज प्रदेश बना दिया लेकिन महाराजा मानसिंह ने तो अकेले ही मारवाड को लखनऊ, काशी, दिल्ली एवं नेपाल बना दिया था।

                                              प्रस्तुतिः- महेन्द्र कुमार जोशी। 
                                          महेश काॅलोनी मंगलपुरा पोकरण
                                                मों0 9799933235

सन्दर्भ-माणक मई 1997
जब नारियों की लाज बचाई राव सातल ने

    राजस्थान की बहुरूपा संस्कृति में गणगौर पर्व का बड़ा महत्व है। इस अवसर पर सुहागिन औरतें तथा कुंवारी कन्याएँ घुड़ला घुमाती है तथा अंतिम दिन ये घुड़ला पानी में डुबो दिया जाता है। तथ्य यह भी है कि यह घुड़ला छिद्रयुक्त होता है। यह परंपरा बरसों से हमारे राज्य में चली आ रही है जिसका आनंद स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से लेते हैं। जोधपुर में तो गत 40-50वर्षों से फगड़ा घुड़ला मनाया जाता है, जिसकी चर्चा अन्यत्र की जायेगी। घुड़ले के इस त्योंहार का सम्बन्ध जोधपुर के राव सातल के समय घटी एक ऐतिहासिक घटना से है, जिसकी जानकारी देना प्रासंगिक रहेगा।
    राव सातल का जन्म सन् 1435ई. में हुआ था। इनके पिता जोधपुर संस्थापक राव जोधा तथा माता हाड़ी रानी जसमादे थी। कहा जाता है कि राव जोधा के कुल 20 पुत्रों में से राव सातल तीसरे बड़े पुत्र थे। जोधा के ज्येष्ठ पुत्र नीम्बा का प्राणान्त उनके जीवनकाल में ही हो गया था तथा उनके दूसरे बड़े पूत्र जोगा को मंदबुद्धि मानने के कारण राव सातल को राजगद्दी प्राप्त हुई तथा 14मई1488ई. को राव सातल का राजतिलक हुआ। बीकानेर के संस्थापक राव बीकाख् मेड़ता के राव दूदा तथा बरसिंह, सूजा आदि भी राव सातल के सहोदर थे। राजतिलक के कुछ ही दिन बाद राव सातल ने मारवाड़ के पोकरण ठिकाने से दो कोस दूरी पर एक दुर्ग का निर्माण करवाकर उसे सातलमेर नाम दिया। इनकी कुल सात रानियां थी, जिसमें से एक रानी फूलकंवर कुंड़ल के भाटी देवीदास की पुत्री थी। यही भाटी देवीदास सन् 1457ई. के करीब जैसलमेर के रावल बने। रावल बनने पर उन्होंने कुंड़ल की जागीर अपने दामाद राव सातल को सुपुर्द कर दी। इसी रानी फूलकंवर ने फूलेराव नाम से प्रसिद्ध तालाब जोधपुर में बनवाया था।
    सातल जी का छोटा भाई बरसिंह मेड़ता में राजदरबार की ओर से शासन चलाता था। एक बार मेड़ता में अकाल पड़ने पर उसने हमलावर सांभर क्षेत्र को लूट लिया। उस समय सांभर अजमेर के अधीनस्थ था, अतः सांभर के चौहान शासक ने अजमेर के सूबेदार मल्लू खां, जो मांडू के सुल्तान नासिरशाह की ओर से अजमेर में नियुक्त किया गया था, को इस घटना की जानकारी देकर सुरक्षा की फरियाद की। तब सूबेदार मल्लू खां ने बरसिंह को अजमेर बुलाकर धाखे से कैद कर लिया। इस घटना की सूचना मिलते ही राव सातल तथा बीकानेर के राव बीका व राव दूदा ने अजमेर पर धावा बोल दिया। घबराये मल्लू खां ने उस समय तो बरसिंह को छोड़ दिया, पर अंदर ही अंदर प्रतिशोध की तैयारी करने लगा। शीघ्र ही उसने पूरी तैयारी के साथ मेड़ता पर हमला बोल दिया। इस लड़ाई में मांडू का सेनापति सिरिया खां तथा सिंध का मीर घुड़ला खां भी साध में थे। बरसिंह तथा दूदा दोनों जोधपुर भाग आये तथा मल्लू खां ने मेड़ता को बूरी तरह लूटा अब वह जोधपुर की ओर बढ़ने लगा। राव सातल अपने भाईयों बरसिंह, दूदा, सारंग खींची तथा बरजांग भीमोत आदि सरदारों के साथ मुस्लिम सेना की ओर बढ़े। इसी बीच मुस्लिम सेना ने पीपाड़ आकर पीपाड़ को भी लूटा। संयोगवश उस दिन गणगौर था तथा सुहागिन महिलाएँ व कुंवारी कन्याएँ गणगौर की पूजा करने आई हुई थीं। घुड़ले खां ने उनमें से करीब 140 औरतों तथा कन्याओं को कैद कर लिया। तथा वहां से कोषाणा (तह.भोपालगढ़ जिला जोधपुर) आकर अपना डेरा जमा लिया। उस समय रात तो हो चुकी थी। जब सातलजी को यह सूचना मिली कि पीपाड़ की स्त्रियों व कन्याओं को मुसलमानों ने बंदी बना लिया है तथा रात को उनकी इज्जत पर हाथ ड़ाला जा सकता है, तो वह क्रोध से भर उठे तथा नारियों की रक्षार्थ रात्रिकाल में ही मल्लू खां के शिविर पर हमला कर दिया। घबराये मुसलमान भाग छूटे। मल्लू खां अजमेर की तरफ भाग गया तथा सिरिया खां को दूदा ने मार गिराया। मीर घुड़ले खां तथा सातल जी में भयंकर लड़ाई हुई, आखिरकार सातलजी ने घुड़ले खां को मार गिराया तथा स्वयं भी बहुत घायल हो गये। उनके निर्देश पर औरतों को आजाद कर दिया गया। सांरग खींची ने घुड़ले खां का सिर काटकर उसमें तीरों से छेद कर दिये तथा उसका छिद्रित सिर को उन औरतों को सौंप दिया जिनका उसने अपमान किया था। औरतें राव सातल की यशोगाथा गातीं हुईं घुड़ले खां का सिर लेकर पूरे पीपाड़ में में घर-घर घूमीं। इस घटना के प्रतीक के रूप में न केवल मारवाड़ वरन् पूरे राजस्थान में आज भी घर-घर घुड़ला घुमाया जाता है तथा अंतिम दिन उसे जल में डूबो दिया जाता है। कोसाना की लड़ाई में घायल राव जीवित नहीं रह सके लेकिन स्त्रियों की मान रक्षा कर वे आज भी अमर है। 1 मार्च 1492 को राव सातलजी का स्वर्गवास हो गया तथा कोसाना के तालाब के किनारे ही उनका अंतिम संस्कार किया गया, जहां उनकी छतरी आज भी मौजूद है। उनकी सातों रानियां भी उनके साथ सती हुईं। उनकी एक रानी हरखाबाई की पूजा तो नागणेची माता के साथ की जाती है। जोधपुर राजघराने की ओर से चैत्र सुदी तीज को पहले ईसर तथा गवर दोनों की पूजा की जाती थी, लेकिन राव सातल की मृत्यु के बाद इस दिन केवल गवर की ही पूजा की जाती है। 
    उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विभिन्न ऐतिहासिक ग्रंथों में कोसाना की लड़ाई का नायक राव सातल को बताया गया है, लेकिन चैलदान खिड़िया कृत ग्रंथ खींची वंश प्रकाश में इस लड़ाई का नायक सारंग खींची को बताया गया है। अधिकांश इतिहासकार इस तथ्य से सहमत नहीं है। 
    इस प्रकार घुड़ला जब तक स्त्रियों के द्वारा घुमाया जाता रहेगा, वीर सातल की यशोगाथाएं यूं ही अमर रहेगी।
- महेन्द्र कुमार जोशी
संदर्भः-श्री जुगल परिहार द्वारा लिखित लेख।    




जोधपुर की स्थापना 

राव जोधा(29.3.1415 से 16.4.1488)

     सन् 1949ई. में विशाल राजस्थान में सम्मिलित होने से पूर्व जोधपुर मारवाड़ रियासत की राजधानी थी।12मई 1459ई.को जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी मंडोर में थी।मंड़ोर करीब 18वर्षों तक मारवाड़ की राजधानी रहा था।इतिहासकारों के अनुसार राठौड़ों से पूर्व यह प्रदेश मौर्य, कुषाण, ईण, गुप्त, गुर्जर-प्रतिहार, चावड़ा तथा परिहार वंश के आधिपत्य रहा था।15वीं सदी के आसपास से सींमात प्रदेश होने तथा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह क्षेत्र बार बार आक्रमणकारियों से आक्रान्त होेने लगा था तथा यहाँ के तत्कालीन परिहार शासक भी इन आक्रमणों का प्रतिरोध करते करते थक चुके थे।अतः राजा धवलइंदा परिहार के मड़ोर को मुस्लिम आक्रान्ताओ से बचाने के लिए राठौड़ वंशी परम शक्तिशाली राव चूंडा से अपनी पु़त्री का विवाह कर मंड़ोर राठौड़ों को दहेज में दे दिया।तब से मारवाड़ राठौड़ों के आधिपत्य में रहा। इस बाबत मारवाड़ में यह सोरठा प्रसिद्ध है-
इंदा तणों उपकार कमधज(राठौड़) कदै न बीसरै।
चूंड़ों चंवरी चाढ़ दियौ मंड़ोवर दायजै।।
     राव चंड़ा के पुत्र राव रिड़मल अथवा राव रणमल्ल भी पराक्रमी थे लेकिन वे मेवाड़ की राजनीति में अधिक सक्रिय थे क्योंकि राव चूंड़ा के पुत्र रिड़मल को उनकी बहन हंसाबाई ने मेवाड़ बुुलवाया क्योंकि सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ की राजनीति में चल रही उथल-पुथल से वह अपने पुत्र मोकल को बचाना चाहती थी। इस प्रकार रिड़मल मोकल तथा बाद में उसके पुत्र कुंभा का संरक्षक बना कुंभा ने रणमल की सहायता से अपने पिता के हत्यारों से प्रतिशोध लेकर अपनी सत्ता की धाक जमाई थी,इस वजह से रिड़मल का महत्व मेवाड़ में बढ़ गया था।रिड़मल के बढ़ते प्रभाव से आशंकित कुंभा ने लाखा के बड़े पुत्र चूंड़ा जो राजस्थान का भीष्म भी कहा जाता है,तथा मेवाड़ के कुछ सरदारों के सहयोग तथा राजमाता सौभाग्यदेवी के साथ मिलकर रिड़मलजी के विरूद्ध षडयंत्र रचा तथा एक दासी भारमली की सहायता से रिड़मल को मरवा दिया। रिडमल के पुत्र राव जोधा भी उस समय मेवाड़ में थे लेकिन वे किसी प्रकार बचकर मारवाड़ की ओर आ गये तथा इस प्रकार मंड़ोर की सत्ता कुछ समय के लिये मेवाड़ के अधिकार क्षेत्र में आ गयी। इधर राव जोधा मरूप्रदेश में भटकते रहे तथा अपनी स्थिति मजबूत करते रहे। करीब 15 साल तक शक्ति एकत्र करने के बाद जोधा ने महाराणा कुम्भा के सेनापति अक्का सिसोदिया तथा अहाड़ा हिंगोला को मार कर मंड़ोर पर पुनः अधिकार कर लिया। इस प्रकार जोधा के नेतृत्व में मारवाड़ के राठौड़ वंश का सूर्य पुनः उदित हुआ। दूरदर्शी जोधा ने मंड़ोर को आक्रमणों की दृष्टि से असुरक्षित मानकर करीब 10 किलोमीटर दूर चिड़ियानाथजी टूँक नामक पहाड़ी पर 12 मई 1459ई.(ज्येष्ठ सुदी एकादशी, शनिवार) को नये सुरक्षित मजबूत तथा विशाल दुर्ग की नींव रखी तथा नये नगर की स्थापना की जो जोधपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जोधा ने मंड़ोर के पास जोधेबाव नामक तालाब का निर्माण भी करवाया तथा मंड़ोर से माता चामुंडा की प्रतिमा नये दुर्ग के मंदिर में स्थापित की। जोधा की बड़ी रानी जसमादे ने राणीसर नामक तालाब तथा एक अन्य सोनगरा वंशी रानी चाँदकँवर ने चाँद बावड़ी का निर्माण करवाया। राव जोधा के साथ मेवाड़ से आये सेठ पदमजी ने किलानिर्माण में उनकी आर्थिक मदद की तथा पदमसागर नामक तालाब भी बनवाया। राव जोधा के विभिन्न रानियों से कुल 20 पुत्र थे जिनमें से तीसरे पुत्र राव सातलजी उत्तराधिकारी बने। इनके 5वें पुत्र राव बीका थे, जिन्होंने बीकानेर बसाया। राव दूदा भी जोधा के पुत्र थे, जिन्होंने मेड़ता में ऊपर सत्ता स्थापित की। महान कृष्ण भक्त तथा कवयित्री मीरा इन्हीं दूदा की पौत्री थी। मारवाड़ की सत्ता पुनः स्थापित करने वाले तथा जोधपुर के इस निर्माता जोधा का स्वर्गवास 16 अप्रेल 1488ई. को हुआ। इस प्रकार मारवाड़ में राठौड़ों की सत्ता की पुनस्र्थापना का श्रेय राव जोधा को दिया जा सकता है।

:- महेन्द्र कुमार जोशी 

जब पोकरण का वीर गूंजा मारवाड़ के दरबार में


    बात उन दिनों की है जब जोधपुर पर राठौड़ वंश के महाराजा विजयसिंह का शासन था। महाराजा विजयसिंह बखतसिंह के पुत्र थे। उनका जन्म 1729ई. में हुआ।सिघोंली में बखतसिंह की मृत्यु के समय विजयसिंह मारोठ में थे तथा वहीं उनका राज्याभिषेक हुआ। बाद में 31 जनवरी1753ई.को उनके राजतिलक का उत्सव मनाया गया।करीब 40वर्ष तक शासन करने वाले विजयसिंह ने मारवाड़ में सर्वप्रथम अपने नाम से चाँदी के सिक्के चलाये थे,जो विजयशाही सिक्कों के नाम से प्रसिद्ध हुए।विजयसिंह की परम प्रिय प्रेयसी पासवान गुलाबराय थी,जो भरतपुर की जाट थी।मारवाड़ में उस समय गुलाबराय की ही हुकुमत चलती थी।जोधपुर का गुलाबसागर तालाब गुलाबराय ने ही बनावाया था।उस समय पोकरण ठिकाने के ठाकुर देवीसिंह चंपावत थे।पोकरण के ठाकुर महत्वाकांक्षी होने से मारवाड के राजदरबार तक अपना प्रभाव रखते थे तथा राठौड़ सरदारो में उनकी अच्छी पकड़ थी। महाराजा विजयसिंह तथा ठा.देवीसिंह में राजनीतिक प्रभुत्व को लेकर खींचतान चलती रहती थी,जिससे महाराजा बहुत परेशान थे।इसी बीच एक दिन मौका पाकर महाराजा ने देवीसिंह को किले में आमंत्रित किया तथा अवसर पाकर धोखे से उनकी हत्या करवा दी। चूंकि देवीसिंह के दो पुत्र थे-श्यामसिंह व सबलसिंह,अतः महाराजा ने सेना की एक टुकड़ी उन दोनों की हत्या के लिए भी भेजी।बिलाड़ा के निकट दोनों गुटों में संघर्ष हुआ, इसमें सबलसिंह वीरगति को प्राप्त हुए। सबलसिंह अपने पुत्र को पोकरण ठिकाने का ठाकुर बनाने चाहते थे,अतः उन्होंने अपने भाई से मरणासन्न अवस्था में ही यह प्रण करवा दिया था कि वह(श्यामसिंह) जोधपुर राज्य में कभी पानी तक नहीं पीयेगा। बात के पक्के श्यामसिंह ने अपने भाई को मुखाग्नि देकर जोधपुर रियासत त्याग दी तथा भरतपुर के जाट राजा जवाहरमल की सेवा में चले गये। जवाहरमल ने उनको अच्छा मान-सम्मान दिया तथा कुछ ही समय में भरतपुर राजदरबार में श्यामसिंह की धाक जम गयी।

    दूसरी ओर पासवान गुलाबराय अपना रूतबा भरतपुर के जाटों को दिखाना चाहती थी,अतः वह महाराजा विजयसिंह की अनुमति से अपने लाव-लश्कर सहित भरतपुर आ गयी। वहां उसने अपने घमंड़ में जाटों को आशीर्वाद भेजे तथा राजा जवाहरमल को स्वयं के समान ओहदेदार के हिसाब से मुलाकात हेतु बुलावा भेजा। गुलाबराय ने भरतपुर में इतने नखरे दिखाये कि जाट सरदारों को ये नखरे अपना अपमान लगने लगे। अब जवाहरमल ने जाट सरदारों के साथ मिलकर गुलाबराय के डेरे पर रात्रिकाल में हमले की योजना बनाई। इस गुप्त मंत्रणा में श्यामसिंह भी शामिल थे। जवाहरमल ने श्यामसिंह को अपने पिता व भाई की हत्या का बदला लेने के लिए उकसाया तथा गुलाबराय को जिंदा या मृत पकड़ने को कहा।श्यामसिंह ने योजना को अपनी मौन स्वीकृति दी लेकिन मन ही मन वह सोच रहे थे कि यदि गुलाबराय का अपमान होता है तो यह मारवाड़ तथा राठौड़ों का ही अपमान है तथा मारवाड़ महाराजा की पासवान से उनकी उनकी कोई शत्रुता भी नहीं है। यह सोचकर उन्होंने रात्रि को पासवान गुलाबराय को पूरी गुप्त खबर कर दी। समाचार सुनकर गुलाबराय अपने लश्कर सहित जयपुर रियासत की सीमा की ओर भागी। रात्रि को जब जवाहरमल की सेना आयी तो गुलाबराय का डेरा खाली था।जवाहरमल ने आदेश दिया कि उस जाटणी का पीछा कर मार दिया जावे। फौज पीछे भागी लेकिन रास्ते में खड़ी थी श्यामसिंह की छोटी सेना तथा स्वयं श्यामसिंह। लड़ाई में श्यामसिंह घायल हुए लेकिन सेना को आगे नहीं जाने दिया। कुछ सरदार घायल श्यामसिंह को पासवान गुलाबराय के जयपुर स्थित डेरे में ले गये।जहां उनका ईलाज करवाया गया।गुलाबराय श्यामसिंह के अहसान के बोझ तले दबी जा रही थी। उसने श्यामसिंह के पैर पकड़कर उनसे जोधपुर चलने का अनुरोध किया तथा कहा कि जो भी ठिकाना चाहिए वह आपकी नजर होगा लेकिन श्यामसिंह ने कहा कि मैंने जागीर के लिए यह कार्य नहीं किया है वरन राठौड़ों की लाज बचाने के लिए किया है। उन्होंने कहा कि वह वचनबद्ध है कि जोधपुर राज्य का पानी तक नहीं पीयेंगे। उनकी बात सुनकर गुलाबराय उनकी वचनप्रियता की कायल हो गयी तथा उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। श्यामसिंह अंततः जयपुर ही रहे तथा महाराजा विजयसिंह के अनुरोध पर जयपुर महाराजा ने श्यामसिंह को हवेली तथा गीजगढ़ की जागीर दी। गुलाबराय ने श्यामसिंह के छोटे पुत्र इन्द्रसिंह को राजदरबार में बुलवाकर खूब आदर सत्कार किया तथा पुष्कर के पास थावला की जागीर दी जो बाद में इन्द्रगढ़ थावला कहलाया है। 

    श्यामसिंह चंपावत की इस गौरवगाथा पर राजस्थानी साहित्यकार रानी लक्ष्मीकुमारी चूंड़ावत ने राजस्थानी भाषा में 'जबान रो धणी' नामक कहानी भी लिखी है। 

धन्य है श्यामसिंह की वचन परस्ती।
प्रस्तुतिः- महेन्द्र कुमार जोशी

जोधपुर की स्थापना 


राव जोधा(29.3.1415 से 16.4.1488)


     सन् 1949ई. में विशाल राजस्थान में सम्मिलित होने से पूर्व जोधपुर मारवाड़ रियासत की राजधानी थी।12मई 1459ई.को जोधपुर की स्थापना से पूर्व मारवाड़ की राजधानी मंडोर में थी।मंड़ोर करीब 18वर्षों तक मारवाड़ की राजधानी रहा था।इतिहासकारों के अनुसार राठौड़ो से पूर्व यह प्रदेश मौर्य, कुषाण, ईण, गुप्त, गुर्जर-प्रतिहार, चावड़ा तथा परिहार वंश के आधिपत्य  रहा था।15वीं सदी के आसपास से सींमात प्रदेश होने तथा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह क्षेत्र बार-बार आक्रमणकारियों से आक्रान्त होेने लगा था तथा यहाँ के तत्कालीन परिहार शासक भी इन आक्रमणो का प्रतिरोध करते करते थक चुके थे।अतः राजा धवलइंदा परिहार के मंड़ोर को मुस्लिम आक्रान्ताओ से बचाने के लिए राठौड़ वंशी परम शक्तिशाली राव चूंडा से अपनी पु़त्री का विवाह कर मंड़ोर राठौड़ों को दहेज में दे दिया।तब से मारवाड़ राठौड़ों के आधिपत्य में रहा। इस बाबत मारवाड़ में यह सोरठा प्रसिद्ध है-

इंदा तणों उपकार कमधज(राठौड़) कदै न बीसरै।

चूंड़ों चंवरी चाढ़ दियौ मंड़ोवर दायजै।।

     राव चूंडा के पुत्र राव राव रिड़मल अथवा राव रणमल्ल भी पराक्रमी थे लेकिन वे मेवाड़ थी राजनीति में अधिक सक्रिय थे क्योंकि राव चूंड़ा के पुत्र रिड़मल को उनकी बहन हंसाबाई ने मेवाड़ बुुलवाया क्योंकि सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ की राजनीति में चल रही उथल-पुथल से वह अपने पुत्र मोकल को बचाना चाहती थी। इस प्रकार रिड़मल मोकल तथा बाद में उसके पुत्र कुंभा का संरक्षक बना कुंभा ने रणमल की सहायता से अपने पिता के हत्यारों से प्रतिशोध लेकर अपनी सत्ता की धाक जमाई थी,इस वजह से रिड़मल का महत्व मेवाड़ में बढ़ गया था।रिड़मल के बढ़ते प्रभाव से आशंकित कुंभा ने लाखा के बड़े पुत्र चूंड़ा जो राजस्थान का भीष्म भी कहा जाता है,तथा मेवाड़ के कुछ सरदारों के सहयोग तथा राजमाता सौभाग्यदेवी के साथ मिलकर रिड़मलजी के विरूद्ध षडयंत्र रचा तथा एक दासी भारमली की सहायता से रिड़मल को मरवा दिया। रिडमल के पुत्र राव जोधा भी उस समय मेवाड़ में थे लेकिन वे किसी प्रकार बचकर मारवाड़ की ओर आ गये तथा इस प्रकार मंड़ोर की सत्ता कुछ समय के लिये मेवाड़ के अधिकार क्षेत्र में आ गयी। इधर राव जोधा मरूप्रदेश में भटकते रहे तथा अपनी स्थिति मजबूत करते रहे। करीब 15 साल तक शक्ति एकत्र करने के बाद जोधा ने महाराणा कुम्भा के सेनापति अक्का सिसोदिया तथा अहाड़ा हिंगोला को मार कर मंड़ोर पर पुनः अधिकार कर लिया। इस प्रकार जोधा के नेतृत्व में मारवाड़ के राठौड़ वंश का सूर्य पुनः उदित हुआ। दूरदर्शी जोधा ने मंड़ोर को आक्रमणों की दृष्टि से असुरक्षित मानकर करीब 10 किलोमीटर दूर चिड़ियानाथजी टूँक नामक पहाड़ी पर 12 मई 1459ई.(ज्येष्ठ सुदी एकादशी, शनिवार) को नये सुरक्षित मजबूत तथा विशाल दुर्ग की नींव रखी तथा नये नगर की स्थापना की जो जोधपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जोधा ने मंड़ोर के पास जोधेबाव नामक तालाब का निर्माण भी करवाया तथा मंड़ोर से माता चामुंडा की प्रतिमा नये दुर्ग के मंदिर में स्थापित की। जोधा की बड़ी रानी जसमादे ने राणीसर नामक तालाब तथा एक अन्य सोनगरा वंशी रानी चाँदकँवर ने चाँद बावड़ी का निर्माण करवाया। राव जोधा के साथ मेवाड़ से आये सेठ पदमजी ने किलानिर्माण में उनकी आर्थिक मदद की तथा पदमसागर नामक तालाब भी बनवाया। राव जोधा के विभिन्न रानियों से कुल 20 पुत्र थे जिनमें से तीसरे पुत्र राव सातलजी उत्तराधिकारी बने। इनके 5वें पुत्र राव बीका थे, जिन्होंने बीकानेर बसाया। राव दूदा भी जोधा के पुत्र थे, जिन्होंने मेड़ता में ऊपर सत्ता स्थापित की। महान कृष्ण भक्त तथा कवयित्री मीरा इन्हीं दूदा की पौत्री थी। मारवाड़ की सत्ता पुनः स्थापित करने वाले तथा जोधपुर के इस निर्माता जोधा का स्वर्गवास 16 अप्रेल 1488ई. को हुआ। इस प्रकार मारवाड़ में राठौड़ों की सत्ता की पुनस्र्थापना का श्रेय राव जोधा को दिया जा सकता है।
:- महेन्द्र कुमार जोशी 


जैसलमेर के ढाई साके (जौहर)


  विश्व के इतिहास में चितौड के तीन साके प्रसिद्ध हैं। वस्तुतः पूरे राजपूताने में ही आत्मोत्सर्ग के लिये केसरिया बाना पहनने की परम्परा थी। आमेर जैसे मुगलों के सहायक राजघरानों के अलावा प्रत्येक रियासत का साकों का इतिहास है। जैसाण या जैसलमेर में भी साकेे हुए। इनमें भी राजस्थान की शौर्य परम्परा का निर्वाह किया गया।

प्रथम साकाः- महारावल जैतसिंह के दो पुत्र थे, मूलराज ओर रतनसिंह। अलाउद्दीन ने जब मण्डोर के राणा रुपसी पर चढाई की, तब वहां का राजा भागकर जैतसिंह की शरण में गया। महारावल ने उसे बारु नामक गांव की जागीर जीवनयापन के लिये दी। अलाउद्दीन खिलजी का शाही खजाना सक्खर से दिल्ली जा रहा था तब जैतसिंह और रतनसिंह ने उसे लूट लिया। अलाउद्दीन बहुत क्रोधित हुआ। उसने सेनापति महबूब खां और अली खां के नेतृत्व में सेना को जैसलमेर भेजा। किला घेर लिया गया। यह घेरा 12 वर्ष तक रहा। त्रिकूट पहाडी पर स्थित किले में भारी मात्रा में भोजन सामग्री उपलब्ध थी बुर्जो पर विशाल पत्थर रखे हुए थे, जिससे शत्रुओं पर वार किया जाता था। निरन्तर आक्रमण के फलस्वरूप किले की भोजन सामग्री समाप्त होने लगी। तब सलाह के लिए सरदारों की एक सभा बुलाकर तय हुआ कि स्त्रियां जौहर करें एवं पुरुष केसरिया बाना पहनकर शत्रुओं का संहार करते हुए वीर गति को प्राप्त करें। ऐसा ही किया गया। मूलराज और रतनसिंह दोनो शहीद हुए। यह प्रथम साका विक्रम संवत् 1373 की पौष कृष्ण 11 को हुआ था
दूसरा साकाः- तुगलक बादशाह ने अपने सेनापति कमालुद्दीन और मलिक काफूर को जैसलमेर का ध्वंस करने के लिए भेजा। मुस्लिम सेना ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। 6 वर्ष तक युद्ध चलता रहा। सातवें वर्ष रसद न मिलने के कारण दुर्ग में भूख से मरने की स्थिति आ गई। ऐसी स्थिति में दूदा रावल ने एक चाल चली। उन्होने घनसूरियों (सुअर) के दूध की खीर बनवाकर दुर्ग की गलियों में बहा दी। यह देखकर हमलावर सेना सोचने लगी कि अभी तक दुर्ग में रसद भरपूर है। तुर्क सेना अपना घेरा उठाकर जाने वाली थी कि आसकरण के पुत्र भाटी भीम ने शत्रुओं को इसका रहस्य बता दिया। सेना ने घेरा उठाने का विचार त्याग दिया। अब दूदा और तिलोकसी ने साका करने का निश्चय किया। अपने वीर भाटियों के साथ दुर्ग के द्वार खोलकर उन्होंने दुश्मनों पर धावा बोल दिया। दूदा और तिलोकसी 5 हजार भाटियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए और मुस्लिम सेना दुर्ग में प्रवेश कर गई। दूसरा साका वि.स. 1380 के आसपास हुआ।
आधा साकाः- महारावल लूणकरण के समय की यह घटना है। अफगानिस्तान स्थित कंधार में महारावल लूणकरण का एक मित्र था। उसका नाम अमीर अली पठान था। अमीर अली के जैसलमेर आने पर महारावल ने यथोचित स्वागत-सत्कार किया। पर वह धोखेबाज था। उसने महारावल से निवेदन किया कि मेरी बेगम रणवास में महारानी व अन्य परिजनों के दर्शन करना चाहती है। महारावल ने आज्ञा दे दी। अमीर अली ने इस अवसर का लाभ उठाकर डोलों में हथियारों सहित योद्धाओं को बिठा दिया। वह इन डोलों को लेकर महल के द्वार पर पहुंचा ही था कि पहरेदारों को डोलों में पुरुषों की आवाजें सुनाई दी। उन्होंने तलवार से पर्दा हटाया तभी सारा भेद खुल गया। वहीं मारकाट आरम्भ हो गई। प्रहरी ने देखा तो उसने तुरंत राजमहल को इस षडयन्त्र की सूचना दी।

रणभेरी बजने लगी। दुर्ग के निवासी पठानों का सामना करने लगे। महारावल ने रणवास की सभी स्त्रियों को बुलाया और धोखा होने की सारी स्थिति बतलाई। रणवास की सभी कुल वधुओं ने प्राणोत्सर्ग किये। महारावल के चार भाई, तीन पुत्र और 400 योद्धाओं ने अमरता पाई। इतिहास में यह घटना आधा साका के नाम से प्रसिद्ध है। 

प्रस्तुति- महेन्द्र कुमार जोशी।


क्षत्राणी जिसने राष्ट्रीय हित की खा़तिर किया था पति का वध

   हमारे देश की संस्कृति में पति-पत्नी का सम्बन्ध एक अटूट तथा पावन बंधन माना जाता है। मान्यता है कि यह वह रिश्ता है जिसका संबंध जन्म-जन्मांतरों से है। इस देश में नारियां अपने सुहाग की रक्षा के लिए मौत से भी टकरा सकती हैं। अपनी माँग के सिन्दूर की रक्षा के लिए वह करवा चौथ, तीज और न जाने कितने व्रत तथा उपवास करती है ? हमारी प्राचीन संस्कृति के पन्ने सती सावित्री, उर्मिला, माता सीता, सती अनुसूया तथा अन्य कईं आख्यानों से भरे पडे हैं, जिनमें नारी शक्ति ने नाना प्रकार से अपने पतिव्रत धर्म का पालन किया है। लेकिन ऐसे भी कई प्रमाण है जिसमें देश की नारियों ने राष्ट्र भक्ति की खातिर भी कईं बलिदान दिये हैं  तथा अपने प्राणों की आहूति दी है। वीर प्रसूता राजस्थान की भूमि मारवाड में पन्नाधाय ने स्वदेश की खातिर अपने इकलौते नन्हे पुत्र चन्दन की भी बलि दी थी, जिसकी मार्मिक कथाऐं आज भी रो देने को विवश कर देती है। इसी कडी में एक अन्य कालजयी नारी चरित्र हीरादे का भी है, जिसने देश की रक्षार्थ अपने हाथों अपने माथे का टीका तक मिटा डाला।
   घटना विक्रम संवत 1368(ई.1311) वैषाख सुदी पंचमी मंगलवार की है, जब राजस्थान के जालौर पर चौहान  वंशी सोनगरा राजा कान्हडदेव का शासन था तथा दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था। कहा जाता है कि अलाउद्दीन खिलजी की पुत्री फीरोजा कान्हडदेव के पुत्र वीरमदेव से बेहद प्यार करती थी लेकिन वीरमदेव उससे विवाह को प्रस्तुत नही था, अतः वीरमदेव को लाने के लिए खिलजी ने जालौर विजय का मानस बनाया। वर्ष 1305ई. में अलाउद्दीन ने अपने सेनापति नाहर मलिक के नेतृत्व में जालौर विजय के लिए एक विशाल सेना भेजी। इस दरमियान सीवाणा के युद्ध में नाहर मलिक एवं खांड धर भोज मारे गये। अतः अलाउद्दीन ने तत्काल एक अन्य बडी सेना अईनुल मुल्क मुल्तानी के नेतृत्व में भेजी। युद्ध में भीषण नर संहार के बाद मुल्तानी भाग छूटा। अंत में परेशान खिलजी ने कमालुद्दीन गुर्ग को पुनः एक सैन्य दल के साथ जालौर विजय के लिए भेजा। सेना ने दुर्ग को घेर लिया। लगातार युद्ध तथा लम्बी घेरा बन्दी के बाद भी तुर्क सेना जालौर को विजय नहीं कर सकी, तब तुर्कों  ने एक चाल चली। उन्होंने एक राजपूत सरदार बीका (विक्रम सिंह) को यह लालच दिया कि यदि वह तुर्क सेना को दुर्ग में प्रवेश का गुप्त मार्ग बता दे तो तुर्क सेना जालौर विजय के बाद पुनः दिल्ली लौट जाएगी तथा बीका को जालौर का राजा बना दिया जायेगा। लालच के कारण देशद्रोही बीका ने तुर्क सेना को जालौर दुर्ग में प्रवेश का गुप्त मार्ग बता दिया तथा स्वयं भेट स्वरूप बहुत सारा धन लेकर अपनी पत्नी के पास यह खुशखबरी सुनाने गया। बीका की पत्नी हीरादे को जब यह बात पता चली कि उसके पति ने धन तथा राज्य के लालच में राष्ट्र द्रोह किया है तो वह क्रोध से तमतमा उठी। उसे ऐसे गद्दार की पत्नी होने पर अफ़सोस होने लगा, अतः उसने बीका को बहुत धिक्कारा तथा नागिन के समान फुफकारते हुए उस वीरांगना ने तलवार से तुरन्त अपने पति का शीश धड़ से अलग कर दिया। राष्ट्र के गद्दार के साथ हीरादे ने जो सलूक किया उसने उस का नाम देशभक्त वीरांगनाओं की सूची में अंकित करवा दिया। किसी कवि ने हीरादे के मुख से अनायास ही निकले तात्क्षणिक षब्दों का वर्णन कुछ इस तरह से किया हैः-
"हीरादेवी भणइ चण्डाल सूं मुख देखाड्यूं काळ"
   कान्हडदेव की पराजय हुई लेकिन हीरादे ने अपने देश प्रेम से क्षत्रिय नारियों का शीश गर्व से ऊँचा कर दिया। देशहित में सुहाग का बलिदान करने वाली यह संभवतः इकलौती घटना है। ऐसी वीरांगना हीरादे को शत् शत् नमन।
प्रस्तुतिः- महेन्द्र कुमार जोशी




संदर्भ- पाथेयकण दिसम्बर 2016
 



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