राजस्थान पंचायत प्रवाह-1
पंचायतीराज की स्थापना, पृष्ठभूमि एवं परिचय
हमारे देश की अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्र मे निवास करती है तथा ग्रामीण क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास के लिए ग्रामीण जनता की शासन में भागीदारी आवश्यक मानी गई है। इसी उदेश्य की पूर्ति के लिए स्वतन्त्रता के पश्चात कई कदम उठाए गए तथा इसी कडी मे पंचायती राज व्यवस्था को लाया गया।पंचायत व्यवस्था का इतिहास
मूल रूप से संस्कृत भाषा के शब्द ’पंचायत‘ का शाब्दिक अर्थ पाँच का समूह है, जिसमें प्राचीन वर्ण व्यवस्था कें चारों वर्णो ब्राह्रमण, क्षत्रिय, वैश्य, एवं शूद्र कें प्रतिनिधियों के साथ पाँचवे प्रतिनिधि के रूप में ईश्वर को शामिल माना गया हैं। हमारे देश में पंचायत व्यवस्था प्राचीन काल से ही अस्तित्व में रही है। वैदिक काल में ग्राम के प्रमुख को ग्रामणी कहा जाता था तथा ग्राम की प्रमुख सभा महासभा थी। इन महासभाओं द्वारा राजा को भी नियन्त्रित किया जाता था। राजा का चुनाव महासभाओं द्वारा ही किया जाता था। महासभा में उस क्षेत्र के समस्त नागरिक शामिल होते थे तथा राजा को भी इन महासभाओं की बैठकों में शामिल होना पडता था। उत्तर वैदिक काल में ग्रामणी को ग्रामिक कहा जाने लगा। बुद्ध कालीन ग्राम परिषदो के मुखिया को ग्राम भोजक कहते थे। यह परिषदे् वर्तमान पंचायत की ही तरह ग्राम की भूमि की सुरक्षा एवं व्यवस्था के साथ-साथ गाँव की सुरक्षा और शान्ति के लिए भी उत्तरदायी थीं। जनहित के कार्यो का सम्पादन भी इन्ही संस्थाओं द्वारा किया जाता था। मौर्य काल में भी गाँव, संग्रहण, खार्वटिक, द्रोणमुख तथा जनपद आदि राजनैतिक ईकाईया थीं। ग्रामिक गाँव का मुखिया होता था जो परिषद के माध्यम से शासन संचालन करता था। गुप्तकाल में भी शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी तथा उसके प्रमुख को ग्रामिक कहा जाता था। ग्रामिक पंच मण्डल की सहायता से ग्राम का शासन चलाता था। गाँव के नागरिक इस पंच मण्डल के सदस्य हुआ करते थें। हर्षवर्धन ने भी इसी व्यवस्था कों अपनाया। शिलालेखो से जानकारी मिलती है कि दक्षिण भारत में भी पंचायत व्यवस्था लागू थी तथा चोल प्रशासन की मुख्य विशेषता ग्राम्य स्वशासन ही था। कुर्रम एक स्वायत्तशाषी ईकाई थी जिसकी शक्तियां ग्राम के वयस्क नागरिकों द्वारा चुनी हुई एक महासभा में निहित थीं। महासभा आठ प्रकार की समितियों द्वारा अपने कार्यों का सुचारू संचालन करती थी। ये महासभाऐं न्याय सम्बन्धी कार्य भी करती थीं। प्राचीन काल में ग्राम पूर्णतः स्वायत्त होते थें और इस प्रकार केन्द्रीय शासन अनेक दायित्वों से मुक्त रहता था।मुगल काल में भी पंचायत व्यवस्था को अपनाया गया तथा ग्रामीण स्तर पर शासन संचालन हेतु तीन महत्वपूर्ण अधिकारी मुक़द्दम, पटवारी तथा चौधरी की व्यवस्था थीं। शासन का संचालन मुक़द्दम द्वारा, लगान वसूली पटवारी द्वारा तथा पंचों की सहायता सें न्याय व्यवस्था चौधरी द्वारा की जाती थीं। प्राचीन काल से चली आ रही इस व्यवस्था कों अग्रेजो के शासन काल में छिन्न-भिन्न कर दिया गया। यद्यपि सामाजिक जीवन में प्रत्येक जाति तथा वर्ग की अलग-अलग पंचायत थी, जिनमें अग्रेजी शासन की ओर से हस्ताक्षेप नही किया जाता था, तथापि उनकी नीति यह थी कि शासन का काम यथा संभव राजकीय अधिकारियों के नियन्त्रण में रहें। धीरे-धीरे अग्रेजों की नीतियों के कारण ग्रामों की स्थानीय स्वायत्तता समाप्त होने लगी। यद्यपि 1882 ईं. में लार्ड रिपन तथा 1910 ई. में शाही आयोग ने पंचायतों के महत्व को स्वीकार किया तथा बाद में भी विभिन्न सुधार अधिनियमों द्वारा पंचायत को स्थानीय स्वशासन के कुछ अधिकार दिये गये, लेकिन इन पंचायतों पर केन्द्रीय शासन का पूर्णतः कठोर नियन्त्रण था। इस प्रकार देश की आजादी तक अंग्रेजी शासन काल में पंचायत व्यवस्था मृत प्राय रही।
संकलन एवं प्रस्तुति- महेन्द्र कुमार जोशी।
संदर्भ- 1. पंचायती राज कानून और विधान 2. वृहद राजस्थान पंचायती राज कोड
राजस्थान पंचायत प्रवाह-2
आज़ादी के बाद पंचायती राज
देश की स्वतंत्रा तक गाँवों में सही मायनों में पंचायत व्यवस्था का अभाव ही रहा था। आज़ादी के बाद इस व्यवस्था के पुर्नजीवन हेतु सक्रिय प्रयास प्रारम्भ हुए। उत्तर प्रदेश में सन् 1947 ई. में पंचायत राज अधिनियम बनाया गया। राष्ट्रपिता स्व.महात्मा गाँधी ने शासन के विकेन्द्रीकरण तथा पंचायती राज व्यवस्था पर विशेष बल दिया, इसके लिए केन्द्र में पंचायती राज एवं सामुदायिक विकास मंत्रालय की स्थापना की गई और श्री एस.के.डे. को इस मन्त्रालय का मन्त्री बनाया गया।
देश की शासन व्यवस्था के संदर्भ में राष्ट्रपिता स्व. महात्मा गांधी के भाषणों और लेखों में तीन शब्द प्रधान रूप से इंगित किये गये हैं-स्वराज्य, ग्राम स्वराज्य और रामराज्य। इन शब्दों का अर्थ बताते हुए एक बार आचार्य विनोबा ने कहा था कि- “दूसरे देश की सत्ता अपने देश पर न रहे, तब होता है-स्वराज्य। बडे नगरों की सत्ता गाँवो पर न रहे, तब होता है- ग्राम स्वराज्य। गाँवों में झगडे न हों और सारा व्यवहार प्रेम, निर्भयता, ज्ञान, उद्योग एवं स्वच्छता से होने लगे तब होता है-रामराज्य।“ गांधी जी का मत था कि एक हजार की आबादी वाले गाँव को अगर स्वावलम्बन के आधार पर संगठित किया जाये तो गाँवों में बुनियादी आवश्यकता की वस्तुऐं तैयार हो सकती हैं, इस प्रकार स्वदेशी उत्पाद बढानें में गाँव और शहर परस्पर पूरक हो सकते हैं। उनके अनुसार इस काम में पंचायतें प्रभावी भूमिका अदा कर सकती हैं।
ग्रामीण जनता की शासन में भागीदारी तय करने के लिए तात्कालिक सरकारों द्वारा सन 1952 ई. मे सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा उसके बाद सन् 1953 ई. में राष्ट्रीय प्रसार सेवा प्रारम्भ किये गये, लेकिन ये दोनो ही कार्यक्रम सफल नही हो पाये। हमारा राज्य राजस्थान संयोगवश पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना में अग्रणी साबित हुआ पंचायती राज की गठन की दिशा में संयुक्त राजस्थान द्वारा पंचायती राज अध्यादेश 1948 ई. लागू करना प्रथम कदम था। 1949 ई. में राजस्थान निर्माण के बाद मुख्य पंचायत अधिकारी के अधीन एक पृथक पंचायत विभाग स्थापित किया गया। बाद में राजस्थान पंचायत अधिनियम 1953 ई. पारित किया गया जो एक जनवरी 1954 ई. से लागू किया गया। इस अधिनियम के अधीन पंचायतों का पुनर्गठन किया गया तथा उन स्थानों पर जहाँ पहले से पंचायतें नही थीं, वहाँ पंचायतें स्थापित की गईं। इसके बाद पंचायत राज व्यवस्था को मजबूत बनाने के उदेश्य से सन् 1957 ई. में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में ग्रामोद्धार समिति का गठन किया गया। श्री मेहता की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय विस्तार सेवाओं नें अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ग्रामीण स्तर पर एक ऐसी उत्तरदायी संस्था होनी चाहिये जो सम्पूर्ण ग्रामीण समुदाय की भागीदारी का प्रतिनिधित्व करती हो तथा विकास कार्यों को लागू करने के लिए आवश्यक नेतृत्व प्रदान कर सके। इस समिति ने भारत में त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था को स्थापित करने की सिफारिश की, जो निम्नानुसार है-
1. ग्राम स्तर पर ग्राम या नगर पंचायत, खण्ड अथवा तहसील स्तर पर खण्ड अथवा तहसील पंचायत और ज़िला स्तर पर जिला पंचायत की स्थापना की जाये।
2. लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की मूल इकाई प्रखण्ड या समिति स्तर पर होनी चाहिये।
3. सभी योजना एवं विकास कार्य इनको सौंप देना चाहिये।
4. जिला परिषद् का अध्यक्ष जिला अधिकारी हो।
बलवन्त राय मेहता समिति की सिफारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद सन् 1958 मे स्वीकार किया।
बलवन्त राय मेहता समिति की सिफारिशों के अनुसार राजस्थान सरकार ने राजस्थान पंचायत समिति एवं जिला परिषद् अधिनियम 1959 ई. पारित किया एवं 2 अक्टूंबर 1959 ई. को राजस्थान के नागौर जिले की बगदरी ग्राम पंचायत से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। बाद में आन्ध्र प्रदेश ने इस योजना को लागू किया। वर्तमान में राजस्थान में लागू पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा निम्नवत हैं-
पंचायती राज व्यवस्था
1. ग्राम पंचायत
यह पंचायती राज व्यवस्था में सब से निम्न स्तर पर होती है। इसका अध्यक्ष सरपंच तथा सचिव ग्राम विकास अधिकारी होता है|
2. पंचायत समिति
यह मध्यवर्ती खण्ड स्तरीय पंचायती राज संस्था है इसका अध्यक्ष प्रधान तथा सचिव विकास अधिकारी होता है।
3. ज़िला परिषद्
यह जिला स्तरीय पंचायती राज संस्था है। इसका अध्यक्ष जिला प्रमुख तथा सचिव मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है।
सन् 1959 ई. के बाद पंचायती राज ने हमारे देश में कुछ उन्नति की। इस दौरान कुुछ राज्यों यथा गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल आदि में नयी पंचायती राज व्यवस्था ने अपनी जडें. जमा कर प्रगतिशीलता का रूख किया, लेकिन अधिकांश राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था को आशानुकूल सफलता प्राप्त नही हुई, यहाँ तक कि इनमें नियमित रूप से निर्वाचन तक नही करवाये जा सके। आम जनता के प्रत्येक वर्ग का इस नई व्यवस्था में कोई प्रतिनिधित्व नही था और न ही स्थानीय प्रशासन तथा विकास कार्यो में पंचायती राज संस्थाओं की कोई आंशिक भूमिका भी दिखाई दी। अतः पुनः महसूस किया जाने लगा कि व्यवस्था में नवाचार आवश्यक हैं। इसी अनुभूति का परिणाम 1977 ई. में अशोक मेहता समिति के रूप में सामने आया।
2. अशोक मेहता समिति 1977ः-
अशोक मेहता समिति का गठन जनता पार्टी सरकार ने दिसम्बर 1977 ई. में किया, जिसने अपनी रिपोर्ट अगस्त 1978 ई. में सौंपीं। इस समिति ने कुल 132 सिफारिशें दीं, जिनमें से कुछ मुख्य सिफारिशे इस प्रकार हैं-
1. पंचायती राज व्यवस्था त्रिस्तरीय न हो कर द्विस्तरीय होनी चाहिये-
(1) 15000 से 20000 की जनसंख्या पर मण्डल पंचायत
(2) जिला स्तर पर जिला परिषद्
2. राज्य के बाद विकेन्द्रीकरण का प्रथम बिन्दु ज़िला स्तर पर होना चाहिये।
3. ज़िला परिषद को राज्य स्तर पर योजना एवं विकास के लिये जिम्मेदार बनाया जाये।
4. राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी द्वारा पंचायती राज के चुनाव करवाये जायें।
5. पंचायती राज के मामलों की देख-रेख के लिये राज्य मंत्री परिषद् में एक मंत्री नियुक्त किया जाये।
6. पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिये।
इस समिति का कार्यकाल पूरा होने से पूर्व जनता पार्टी की सरकार भंग होने के कारण इसकी सिफारिशों पर कार्यवाही नही की जा सकी।
3. पी. के. थुंगन समिति 1988ः-
जनवरी 1964 ई. में अखिल भारत पंचायत परिषद् के उदयपुर अधिवेशन में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने मांग की कि पंचायती राज संस्थाएं स्वायत्त सरकारे हों। इसके पश्चात् 1988 ई. में पी.के.थुंगन समिति का गठन पंचायती संस्थाओ पर विचार करने के लिए किया गया। इस समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा कि पंचायती राज संस्थाओं को संविधान में स्थान दिया जाना चाहिए। इस समिति की सिफारिश के आधार पर पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए 1989 ई में 64वाँ संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया गया, जो लोक सभा द्वारा पारित कर दिया गया, लेकिन राज्य सभा द्वारा नामंजूर कर दिया गया। इसके बाद लोकसभा भंग कर दिये जाने के कारण यह विधेयक समाप्त कर दिया गया। इसके बाद 72वाँ संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया, जो लोकसभा भंग किये जाने के कारण समाप्त हो गया।
संकलन एवं प्रस्तुति- महेन्द्र कुमार जोशी।
संदर्भ- 1. पंचायती राज कानून और विधान 2. वृहद राजस्थान पंचायती राज कोड
73वाँ संविधान संशोधन
16 दिसम्बर, 1991 ई. को 72वाँ संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया, जिसे संयुक्त संसदीय समिति (प्रवर समिति) को सौंप दिया गया। समिति ने विधेयक पर अपनी सम्मति जुलाई 1992 ई. में दी और विधेयक के क्रमांक को बदलकर 73वाँ संविधान संशोधन विधेयक कर दिया गया, जिसे 22 दिसम्बर 1992 ई को लोकसभा ने तथा 23 दिसम्बर 1992 ई. को राज्यसभा ने पारित कर दिया। 17 राज्य विधान सभाओं द्वारा अनुमोदित किये जाने के उपरान्त यह विधेयक राष्ट्रपति की सम्मति के लिये पेश किया गया। राष्ट्रपति ने 20 अप्रैल 1993 ई. को विधेयक पर अपनी सम्मति दे दी और यह 24 अप्रैल 1993 ई. को प्रवर्तित कर दिया गया।
संसद द्वारा पारित होने पर पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता मिली। महिलाओ,ं अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अत्यन्त पिछडे वर्गों के लिये स्थान आरक्षित कर पंचायती राज संस्थाओं के लिये चुनाव करवाये गये। इस संशोधन द्वारा पंचायतों को कृषि, भूमि सुधार, लघु सिंचाई, वृक्षारोपण, पशुपालन, ग्रामोद्योग, बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण सहित 30 कार्यों की जिम्मेदारी सौपी गई। ग्रामसभा, ग्रामोद्योग, न्याय पंचायत आदि के कर्तव्य और अधिकारों की व्याख्याएं और धाराएं प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनके आधार पर पंचायतें चाहे तो परंपरागत हुनर और अपेक्षित संसाधनों का यथेष्ट उपयोग कर सकती हैं।
पंचायत व्यवस्था के संबध में प्रावधान संविधान के भाग 9 सें 16 अनुच्छेदों में शामिल किया गया, जो निम्न प्रकार हैं -
1. पंचायत व्यवस्थाओं के अन्तर्गत सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत होगी। इसमें एक या एक से अधिक गाँव शामिल किये जा सकते हैं। ग्रामसभा की शक्तियों के संबध में राज्य विधान मण्डल द्वारा कानून बनाया जाएगा।
2. जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख से कम है, उनमे दो स्तरीय पंचायत, अर्थात् जिला स्तर और गांव स्तर पर, गठन किया जाएगा और 20 लाख की जनसंख्या से अधिक जनसख्या वाले राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था अर्थात् गाँव, मध्यवर्ती तथा जिला स्तर पर, की स्थापना की जाएगी।
3. सभी स्तर की पंचायतों के सभी सदस्यों का चुनाव वयस्क मतदाताओं द्वारा प्रत्येक पाँचवे वर्ष में किया जाएगा। गाँव स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्षतः तथा मध्यवर्ती एवं जिला स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा।
4. पंचायत के सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति अथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिये उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण प्रदान किया जाएगा तथा महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण होगा। (वर्तमान में राजस्थान में राजस्थान विधान मण्डल ने राजस्थान पंचायती राज (दूसरा संशोधन) अधिनियम 2008 ( 2008 का अधिनियम संख्या 14) पारित कर महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत पद आरक्षित कर दिये हैं।)
5. सभी स्तर की पंचायतों का कार्यकाल पांच वर्ष होगा, लेकिन इनका विघटन पंाच वर्ष के पहले भी किया जा सकता हैं। विघटन की दशा में छः मास के अन्तर्गत चुनाव कराना आवश्यक होगा,यदि उस संस्था का शेष कार्यकाल छः माह से अधिक हों।
6. पंचायतों को कौन-सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी और वे किन उत्तरदायित्वों का निर्वाह करेंगी, इसकी सूची संविधान में ग्याहरवीं अनुसूची में दी गयी है। इस सूची में पंचायतों के कार्यनिर्धारण के लिए 29 कार्यक्षेत्रो को चिन्हित किया गया है, जो निम्न प्रकार हैं -
1. कृषि, जिसके अन्तर्गत कृषि विस्तार भी है,
2. भूमि सुधार और मृदा संरक्षण,
3, पशु पालन, दुग्ध उद्योग और कुक्कट पालन,
4. लघु सिंचाई, जल प्रबन्ध और जल आच्छादन विकास,
5. मत्स्य उद्योग,
6. सामाजिक वनोद्योग और फार्म वनोद्योग,
7. लघु वन उत्पाद,
8. लघु उद्योग, जिसके अन्तर्गत खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी है,
9. खादी, ग्राम और कुटीर उद्योग,
10. ग्रामीण आवास,
11. पेय जल,
12. ईंधन और चारा
13. सड़के, पुलिया, पुल, नौघाट, जल मार्ग और संचार के अन्य
साधन,
14. ग्रामीण विद्युतीकरण, जिसके अन्तर्गत विद्युत का वितरण भी है,
15. गैर पारम्परिक उर्जा स्त्रोत
16. गरीबी उपशमन कार्यक्रम,
17. शिक्षा, जिसके अन्तर्गत प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय भी हैं,
18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा,
19. प्रौढ और अनौपचारिक शिक्षा,
20. पुस्तकालय,
21. सांस्कृतिक क्रिया-कलाप,
22. बाजार और मेले,
23 स्वास्थ्य और स्वच्छता(अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और औषधालय)
24. परिवार कल्याण,
25 महिला और बाल विकास,
26. समाज कल्याण (विकलांग और मानसिक रूप से अविकसित सहित )
27. कमजोर वर्गों का( विशेष रूप से अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का) कल्याण,
28. लोक वितरण प्रणाली,
29. सामुदायिक आस्तियों का अनुरक्षण।
7. राज्य विधान मण्डल कानून बनाकर पंचायतों को उपयुक्त स्थानीय कर लगाने, उन्हें वसूल करने तथा उनसे प्राप्त धन को व्यय करने का अधिकार प्रदान कर सकती हैं।
8. पंचायतों की वित्तीय अवस्था के संबन्ध में जाँच करने के लिए प्रति पाँचवे वर्ष राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाएगा, जो राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट देगा।
भारतीय संविधान के 93वें संशोधन (सन् 1993 ई.) की पालना में राजस्थान सरकार नें राज्य की पंचायती राज संस्थाओं के पुर्नगठन हेतु राजस्थान पंचायती राज अधिनियम 1993 ई. पारित कर 23 अप्रेल 1994 ई. लागू कर दिया हैं। नये अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार दिसम्बर 1994 ई. तथा जनवरी 1995 ई. में पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तरों के चुनाव करवा दिये गये थें। वर्तमान में भी इन्ही प्रावधानों के अनुसार प्रत्येक 5 वर्ष में चुनाव करवाये जा कर स्थानिय सरकारों का गठन किया जा रहा है तथा ये सरकारें कुछ अपवादों के होते हुए भी अपना कार्यभार सुचारू रूप सें संचालित कर रही हैं।
आज देश में ढाई लाख पंचायतें एवं 32 लाख चुने हुए प्रतिनिधि है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उम्मीदवारों की भागीदारी भी काफी बढी है, जो हमारे लोकतंत्र की मजबूती का संकेत है। इन सबके बावजूद पंचायती राज के बारे मे महात्मा गांधी का जो सपना था, वह अभी तक अधूरा है। व्यावहारिक स्तर पर देखने में आता है कि पंचायती राज संस्थाओं की विकास योजनाओं में नौकरशाही अड़चनें पैदा करती हैं। साथ ही पंचायती राज संस्थाओं के मामले मे आम जनता का भी रवैया उपेक्षापूर्ण रहता है, क्याोंकि उन्हें पंचायती राज से संबन्धित नियम-कानून की पर्याप्त जानकारी नही है। राजस्थान पंचायती राज अधिनियम 1994 ई. तथा राजस्थान पंचायती राज नियम 1996 ई. के प्रावधान इसी उद्देश्य से संकलित कर सरल रूप में प्रस्तुत करनें का प्रयास किया गया हैं, ताकि पंचायती राज के चुने हुए प्रतिनिधियों, अधिकारियों तथा कार्मिकों के साथ ही आम जनता भी पंचायती राज व्यवस्था से रूबरू हो सकें। आशा है यह प्रयास आपके लिये उपयोगी सिद्ध होगा। सुधि पाठकों के सुझाव सादर आमन्त्रित हैं।
संकलन एवं प्रस्तुति- महेन्द्र कुमार जोशी।
संदर्भ- 1. पंचायती राज कानून और विधान 2. वृहद राजस्थान पंचायती राज कोड
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जवाब देंहटाएंsoon...
हटाएंGood information. Please be continued.
जवाब देंहटाएंthank you. of course
हटाएंI want to know about Gram Panchayat.
जवाब देंहटाएंदोस्तों पाठकों की जानकारी के लिए हम आगामी प्रकाशन मैं पंचायती राज के संबंध में समस्त तथ्य प्रकाशित करने की कोशिश करेंगे तो अपना विश्वास बनाए रखें आपका विश्वास और प्यार ही हमारी मेहनत का प्रतिफल होगा सभी पाठकों का तहे दिल से अभिनंदन महेंद्र कुमार बोहरा फलोदी
जवाब देंहटाएंi want to know about pradhan mantri awas
जवाब देंहटाएंyou will see it soon on our blog. THANK YOU
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