रविवार, 18 नवंबर 2018

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

स्वाभिमानी  वीर :  महाराणा प्रताप

    वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। वह तिथि धन्य है जब मेवाड़ की शौर्य भूमि पर मेवाड़ मुकुट  राणा प्रताप का जन्म हुआ। महाराणा प्रताप का नाम इतिहास में वीरता और दृढ़ प्रतिज्ञा के लिए अमर है। महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी संवत कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष जेष्ठ शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है। महाराणा प्रताप ने यह प्रतिज्ञा की थी कि चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व वह पात्र में भोजन तथा शैय्या पर शयन कभी नहीं करेंगे। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेंगे। इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने पूरी तरह से किया। मूलमंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश नहीं झुकाएगा। तुर्कों को अपनी बहन बेटी का समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना महाराणा प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। महाराणा प्रताप की यह प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही और जब तक 29 जनवरी सन् 1597ई. को उन्होंने परम धाम की यात्रा की तब तक उन्होंने अपने इस प्रण का पालन किया। इसी संदर्भ में महाराणा प्रताप और मानसिंह की एक घटना का उल्लेख किया जाना प्रासंगिक होगा।
    सोलापुर की विजय के बाद मानसिंह कच्छवाहा वापस हिंदुस्तान लौट रहा था तो उसने महाराणा प्रताप से, जो इन दिनों कमल मीर में थे ,मिलने की इच्छा प्रकट की। महाराणा प्रताप उसका स्वागत करने के लिए उदयसागर तक आए। इस झील के सामने वाले टीले पर आमेर नरेश के लिए दावत की व्यवस्था की गई थी। भोजन तैयार हो जाने पर मानसिंह को बुलावा भेजा गया। राजकुमार अमर सिंह को अतिथि की सेवा के लिए नियुक्त किया गया था। महाराणा प्रताप अनुपस्थित थे। मानसिंह के पूछने पर अमर सिंह ने बताया कि महाराणा को सिर दर्द है और वे नहीं आ पाएंगे अतः आप भोजन करके विश्राम करें । मानसिंह ने गर्व के साथ सम्मानित स्वर में कहा कि राणा जी से कहो कि उनके सिर दर्द का यथार्थ कारण मैं समझ गया हूं । जो कुछ होना था, वह तो हो गया। अब उसको सुधारने का कोई उपाय नहीं है, फिर भी यदि मुझे खाना नहीं परोसेंगे तो और कौन पारोसेगा। लेकिन राणा नहीं आए। मान सिंह ने राणा के बिना भोजन स्वीकार नहीं किया। मानसिंह ने भोजन को छुआ तक नहीं, केवल चावल के कुछ कणों को, जो अन्न देवता को अर्पण किए गए थे, उन्हें अपनी पगड़ी में रख कर वहां से निकल आया। इस पर महाराणा ने उसे संदेश भिजवाया कि जिस राजपूत ने अपनी बहन बेटी तुर्कों को दे दी हो, उसके साथ कोई राजपूत भोजन नहीं करेगा। मानसिंह ने इसे अपना अपमान समझा और अपने घोड़े पर सवार होते हुए उसने  महाराणा प्रताप को कठोर दृष्टि से निहारते हुए कहा कि यदि मैं तुम्हारा मान चूर-चूर ना कर दूं, तो मेरा नाम मान सिंह नहीं। महाराणा प्रताप ने उत्तर दिया कि आपसे मिलकर मुझे खुशी होगी। वहां पर उपस्थित किसी व्यक्ति ने मानसिंह को यह भी कहा कि अपने साथ अपने फूफा अकबर को लाना मत भूलना। जिस स्थान पर मानसिंह के लिए भोजन सजाया गया था, उसे अपवित्र हुआ मानकर खुदवा दिया गया और फिर वहां गंगा का जल छिड़क कर उसे पवित्र किया गया। जिन सरदारों और राजपूतों ने अपमान का यह दृश्य देखा था, उन सभी ने स्वयं को मानसिंह का दर्शन करने से पतित समझकर स्नान किया और वस्त्र आदि बदले। मुगल सम्राट को संपूर्ण वृतांत की सूचना दी गई। उसने मानसिंह के अपमान को अपना अपमान समझा। उसने समझा था कि राजपूत अपने पुराने संस्कारों को छोड़ बैठे होंगे, परंतु यह उसकी भूल थी। इस अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारी की गई और इन्हीं युद्धों ने महाराणा प्रताप का का नाम अमर कर दिया। इनमें से पहला युद्ध हल्दीघाटी के नाम से प्रसिद्ध है। जब जब तक भारतवर्ष रहेगा तब तक महाराणा प्रताप का नाम गौरव से लिया जाता रहेगा।
    महाराणा प्रताप ने राजपूत सरदारों की आन बान और शान को सदा बनाए रखा। उन्होंने सिसोदिया वंश की गरिमा को कभी मिट्टी में नहीं मिलने दिया। महलों को त्यागकर वनों में दर-दर की ठोकरें खाई, भूख और प्यास सहे ,लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी उच्च  मर्यादा और  स्वाभिमान को सदा बनाए रखा। महाराणा प्रताप के बारे में प्रसिद्ध है-:
पग-पग भम्या पहाड़, धरा छोड़ राख्यो धर्म।
महाराणा मेवाड़, हिरदे बसया हिंद रे।। 
    अकबर ने भी इन समाचारों को सुना और यह पता लगाने के लिए अपना एक गुप्तचर भेजा। यह गुप्त चर किसी तरीके से उस स्थान पर पहुंच गया, जहां महाराणा प्रताप और उनके सरदार एक घने जंगल के मध्य एक वृक्ष के नीचे घास पर बैठे भोजन कर रहे थे। उनके भोजन में जंगली फल ,पत्तियां और जड़ें  थी ,परंतु सभी लोग उस भोजन को भी उसी उत्साह के साथ खा रहे थे ,जिस प्रकार कोई राज महल में बने भोजन को प्रसन्नता और उमंग के साथ खाता हो। गुप्त चर ने किसी भी सरदार के चेहरे पर उदासी और चिंता नहीं देखी। उसने शीघ्र ही वापस आकर बादशाह अकबर को पूरा वृतांत सुनाया। यह घटना सुनकर अकबर का मन भी महाराणा प्रताप के लिए सम्मान से भर गया और राणा प्रताप के प्रति उसके मन में भी सम्मान की भावना जागृत हुई। उसने अपने दरबार के अनेक सरदारों से महाराणा प्रताप के तप, त्याग और बलिदान की प्रशंसा सराहना की। अकबर के नवरत्न और विश्वासपात्र सरदार अब्दुर्रहीम खानखाना ने भी अकबर के मुख से प्रताप की प्रशंसा सुनी थी। उसने अपनी भाषा में लिखा, इस संसार में सभी नाशवान है। राज्य और धन किसी भी समय नष्ट हो सकता है, परंतु महान व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं हो सकती। महाराणा प्रताप ने धन और भूमि का त्याग कर दिया, परंतु उसने कभी अपना शीश नहीं झुकाया। हिंदुस्तान के राजाओ में वही एकमात्र ऐसा सम्राट है जिसने अपनी जाति के गौरव को बनाए रखा है।
    कहा जाता है कि अमर सिंह के रोने बिलखने और उसकी भूख और प्यास से पसीजते हुए महाराणा प्रताप ने अकबर को एक पत्र लिखा था। राणा के पत्र को पाकर अकबर की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। उसने इसका अर्थ राणा प्रताप का आत्मसमर्पण समझा और कई प्रकार के सार्वजनिक उत्सव अपनी राजधानी में किए। अकबर के दरबार में पृथ्वीराज राठौड़ नाम का एक राजपूत सरदार था। पृथ्वीराज बीकानेर के नरेश का छोटा भाई था। इस बीकानेर नरेश ने मुगल सत्ता के सामने शीश झुका दिया था। पृथ्वीराज राठौड़ केवल वीर ही नहीं अपितु एक योग्य कवि भी था। पृथ्वीराज महाराणा प्रताप की सदैव आराधना करता आया था और उनकी गौरवगाथा को सुनकर उसका हृदय और उस का मस्तक हमेशा गर्व से ऊंचा उठा रहता था। बादशाह अकबर ने उस पत्र को पृथ्वीराज को दिखाया। महाराणा प्रताप के पत्र को पढ़कर पृथ्वीराज का मस्तक चकराने लगा उसके मन में भीषण पीड़ा की अनुभूति हुई फिर भी अपने मनोभाव पर अंकुश रखते हुए उसने अकबर से कहा बादशाह आलमगीर यह पत्र महाराणा प्रताप का नहीं हो सकता किसी शत्रु ने प्रताप के यश के साथ यह जालसाजी की है और आपको भी धोखा दिया है वह आपके ताज के बदले में भी कभी आपकी अधीनता स्वीकार नहीं करेगा। उसने सत्य का पता लगाने के लिए बादशाह अकबर को अपना एक पत्र महाराणा प्रताप के पास भिजवाने का अनुरोध किया जिसे बादशाह अकबर द्वारा स्वीकार कर लिया गया। पृथ्वीराज ने यह पत्र राजस्थानी शैली में महाराणा प्रताप को भेजा था। उसने इस पत्र में राणा प्रताप को उस स्वाभिमान का स्मरण करवाया, जिसकी खातिर उसने अब तक इतनी विपदाओं को सहन किया था और अपूर्व त्याग और बलिदान के द्वारा अपना मस्तक ऊंचा रखा था। पत्र में उसने यह भी अवगत करवाया कि हमारे घरों की स्त्रियों की मर्यादा भंग हो गई है और यह मर्यादाएं बाजार में बेची जा रही है। इन मर्यादाओं का खरीददार केवल अकबर है। उसने सिसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छोड़कर सब को खरीद लिया है, परंतु हे प्रताप! वह आपको नहीं खरीद पाया है। हमें गर्व है कि प्रताप ऐसा राजपूत नहीं जो नौ रोजा के लिए अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है। क्या अब  चित्तौड़ का स्वाभिमान भी इस बाजार में बिकेगा। कहा जाता है कि पृथ्वीराज राठौड़ के डिंगल भाषा में लिखे गए पत्र को पढ़कर महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता  अस्वीकार  करने का निर्णय लिया और इस प्रकार पृथ्वीराज के प्रयासों से सिसोदिया वंश की गरिमा अंत तक बनी रही।
-  महेंद्र कुमार जोशी 

रविवार, 11 नवंबर 2018

वाल्मीकि संत नवल राम जी

संत नवल राम जी    

    माना कि राजस्थान वीरों और वीरांगनाओं की भूमि है, लेकिन केवल वीर भूमि कहना गलत होगा, क्योंकि यह भूमि अपने गर्भ में कुछ और हुनर संचित किए हुए हैं। यहां की एक विशेष पहचान यहां की आध्यात्मिकता भी है।
    राजस्थान के लोगों में आध्यात्मिकता कुछ इस कदर रची-बसी है कि चाहकर भी इस आध्यात्मिकता को इस भूमि से और यहां के लोगों के जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है। आध्यात्मिकता की इस लौ को जलाए रखने में समय-समय पर इस भूमि ने अनेक विद्वान और संयमी संतों को जन्म दिया है। इन्हीं में से एक वाल्मीकि संत के बारे में आज चर्चा की जा रही है- 
    सन 1783 ईस्वी में नागौर जिले की मेड़ता तहसील के गांव हरसोलाव में एक हरिजन परिवार में संत नवल राम जी का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम कुशाला राम जी था और माता का नाम सिंगारी था। वे अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के नवल रामजी में जब उनके पिता ने यह प्रवृत्ति देखी, तो वे उन्हें रामानंद संप्रदाय के मेघवंशी संत कृपाराम जी के पास ले गए। संत कृपाराम जी ने उन्हें आध्यात्मिक उपदेश दिया और अपना शिष्य बना लिया। आध्यात्मिक जीवन बिताते हुए नवलराम जी अनेक संत महात्माओं के संपर्क में आए। अाध्यात्मिक उपदेश देते और लेते हुए उनका ज्ञान निरंतर बढ़ता गया। धीरे-धीरे वे आध्यात्मिक साधना के साथ पदों की रचना भी करने लगे। इनकी रचनाओं में निर्गुण परमात्मा की महिमा का बखान किया गया है। उन्होंने आमजन में सीधी सरल भाषा में राम नाम की महिमा पर जोर दिया है और आध्यात्मिक दार्शनिक विचारों को अपनी सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। इनकी वाणियों और दोहों का संग्रह नवलेश्वर अनुभव वाणी प्रकाश में मिलता है, जो सरल राजस्थानी भाषा में प्रकाशित है। उन्होंने सत्य को अपने उपदेश का आधार माना है। उनका कहना है कि धन, दौलत, रूप और राज सत्ता तो एक दिन मिट्टी में मिल जानी है, लेकिन सत्य को कभी भी नुकसान नहीं पहुंच सकता। उनका एक दोहा दृष्टव्य है-
धन्न डिगे ,जोबन डिगे, राज तेज डिग जाए ।।
सत्य वचन ना  डिगे नवल, जुग परले हो जाए।।
    संत नवलराम जी के 3 पुत्र थे- लादूराम, हरिराम और दयालराम। इन तीनों में दयाल राम की प्रवृत्ति आध्यात्मिक थी, अतः दयाल राम जी नवलराम जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी बने। करीब 1908 ई. के आसपास नवलराम जी ने परमधाम गमन किया। उनके बाद उनके प्रमुख शिष्य और आध्यात्मिक उत्तराधिकारी दयालराम जी ने इनकी आध्यात्मिक विचारधारा को आगे बढ़ाया। इस प्रकार यह परंपरा आगे बढ़ती रही और धीरे-धीरे नवल संप्रदाय के रूप में इसने एक ठोस स्वरूप ग्रहण कर लिया। आज इस संप्रदाय का काफी फैलाव है और इस संप्रदाय के मंदिर राजस्थान में जोधपुर, बीकानेर ,अजमेर, जयपुर इत्यादि कई शहरों में है। यहां तक कि पाकिस्तान के कराची शहर में भी नवल संप्रदाय का मंदिर है। इस प्रकार संत नवलराम जी के उपदेशों पर आधारित नवल संप्रदाय आज भी उनके अनुयायियों और आध्यात्मिक संतों द्वारा प्रगति के मार्ग पर ले जाया जा रहा है।
-महेंद्र कुमार जोशी 

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2018

लाल लाजपत राय की मौत का बदला

जब भगत सिंह ने पूरा किया प्रतिशोध  


    वर्ष 1928 दिन 30 अक्टूबर वार मंगलवार को लाहौर सहित पूरे देश में जगह-जगह साइमन कमीशन वापस जाओ के नारे लगाए जा रहे थे। लाहौर में इस विरोध का नेतृत्व कर रहे थे देश की ख्यात प्राप्त त्रिमूर्ति के एक सदस्य नाम-लाला लाजपत राय। साइमन कमीशन का पूरे भारतवर्ष में जबरदस्त विरोध किया जा रहा था। 
    लाहौर में जगह जगह लाला जी के नेतृत्व में साइमन कमीशन का विरोध किया जा रहा था। जब लाला जी अन्य देशभक्तों के साथ नारे लगाते हुए साइमन कमीशन का पुरजोर विरोध कर रहे थे तो एक अंग्रेज पुलिस सुपरिटेंडेंट जेम्स ए स्काॅट ने बेकाबू होती और विद्रोही भीड़ पर लाठी चार्ज का आदेश दे दिया। उसका आदेश पाते ही ए एस पी जाॅन पी साॅन्डर्स विरोध कर रहे लोगों पर सिपाहियों के साथ टूट पड़ा। इसमें अंग्रेजी नुमाइंदों ने निर्दोष और लाचार लोगों पर बड़ी बेरहमी से लाठियां बरसायी। कईं लोग मारे गए और कईं घायल हो गये। इस दौरान लाला जी पर भी लाठियां चली तो वे गंभीर रूप से घायल हो गये। और उन्होंने कहा कि ''मुझ पर पड़ी हर एक लाठी अंग्रेजी हुकुमत के ताबूत की कील बनेगी''। इस घटना में वीर शिरोमणि शहीद-ए-आज़म भगत सिंह भी शामिल थे। 
    भगत सिंह बचपन से लाला के साथ जुड़े हुए थे और उन्हें अपने पिता तुल्य समझते थे। अंग्रेजों की इस करतूत का बदला लेने की बात उनके दिमाग में घर तो कर ही चुकी थी लेकिन 17 नवम्बर 1928 को जब लाला जी मौत हुई तो बदले की यह आग परवान चढ़ चुकी थी। 
    भगत सिंह और उनके हिन्दुस्तान सोशिएलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के अन्य साथियों ने इसके लिए एक योजना बनाई। जिसमें उनका निशाना था पुलिस सुपरिटेंडेंट जेम्स ए स्काॅट। वे उसकी हत्या करके लाला जी की मौत का प्रतिशोध पूरा करना चाहते थे। 
    दिन 17 दिसंबर वर्ष 1928 वार सोमवार समय 4ः15 लाला जी के मृत्यु के ठीक एक महीने बाद जगह लाहौर पुलिस थाने के सामने। 
    सब कुछ बिना प्लान बी के तय कर लिया गया था। इस प्रतिशोध के इश्तेहार भी पहले ही तैयार कर दिए गए थे जिसमें लिखा था ''लाला जी की मौत का बदला ले लिया गया पुलिस अधिकारी साॅन्डर्स मारा गया''। सबने अपनी अपनी जगह ले ली थी। 
    प्लान के मुताबिक जयगोपाल साईकिल लेकर पुलिस थाने के आगे से निकल रहे थे और फिर अचानक साईकिल की चेन सही करने का नाटक करने लगे। भगत सिंह और राजगुरु पेड़ के पीछे छिपकर जयगोपाल के इशारे का इंतजार करने लगे। ऊधर चन्द्रशेखर आजाद (पंड़ित जी) पास ही डी ए वी स्कूल की चारदीवारी की ओट में छिपकर संरक्षक का काम कर रहे थे। 
    वैसे तो स्काॅट का काम तमाम करना था लेकिन साॅन्डर्स जब बाहर आया तो जयगोपाल ने घात लगाकर बैठे भगतसिंह और राजगुरु को इशारा कर दिया। 
    इशारा पाते ही राजगुरु ने अपनी .32mm की सेमी आॅटोमैटिक पिस्टल काॅल्ट से एक गोली बिना चूके सीधे साॅन्डर्स के शरीर में उतार दी। फिर भगत सिंह ने भी उसी प्रकार की पिस्टल से और दो-तीन गोलियां उसके शरीर के में भेज कर उसके मरने का पूरा इंतजाम कर दिया। फिर तीनों वहां से भाग छूटे और पंड़ित जी उनके अंगरक्षक बनकर उनका पीछा कर रहे सैनिकों से पार पा रहे थे। एक सिपाही चनन सिंह जब उनका पीछा कर रहा था तो उन्होंने उसे चेताया कि ''अगर वो पीछा करेगा तो उसे जान से हाथ धोना पड़ेगा'' लेकिन आज़ाद जी की चेतावनी को न मानकर वो खुद ही अपनी मौत का बंदोबस्त कर चुका था। फिर क्या था उसे जान से हाथ धोना पड़ा। सभी लोग बिना घायल हुए वापस आ चुके थे जैसे ठीक सर्जिकल स्ट्राइक की तरह। 
    वापस आकर उन्होंने पूरे शहर में जगह जगह इश्तेहार लगवा दिए और पर्चे भी बांटे जिसमें लिखा था ''लाला जी की मौत का बदला ले लिया गया, साॅन्डर्स (स्काॅट को काटकर) मारा गया''। समूचा देश अब इन देशभक्तों का मुरीद हो गया और इन देशभक्तों का कद और ऊँचा हो गया। नमन हैं इन वीर सपूतों को और दण्डवत हैं इन वीरों के अदम्य साहस को।
    जिस पिस्तौल से भगत सिंह ने साॅन्डर्स की हत्या की थी उस पिस्तौल को इंदौर के  सेंट्रल स्कूल ऑफ वेपंस एंड टेक्टिक्स(CSWT) में प्रदर्शित किया गया है।
इंकलाब जिन्दाबाद 
-दिनेश कुमार जोशी 

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

SHAHEED-E-AAZAM BHAGAT SINGH

राष्ट्रपुत्र : भगत सिंह 

    अजीब इत्तेफाक हैं आज के दिन में, एक ओर बुराई का खात्मा होता है और दूसरी ओर बुराईयों से लड़ने वाली इंकलाबी ताकत का जन्म होता है। हमारे देश में वतनपरस्त खूब हुए लेकिन उन्हें वो सम्मान, वो आदर, वो प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसके वे असल हकदार हैं। इस मुल्क में क्रांतिकारियों के बारे में हमेशा लोगों को गुमराह किया गया, उनके देश प्रेम को भी गलत तरीके से पेश किया गया। यहाँ तक कि उनकी जन्मतिथि जैसी महत्वपूर्ण जानकारी को भी देशवासियों को सही नहीं बताया गया। 
    वो आदमी जिसने इंकलाब को वैदिक मंत्रों जितना महत्व दिया, वो जिसने कसम खायी वतन पे मरने की, वो जिसने जां लुटा दी मातृभूमि की  ख़ातिर वो जिसने हमेशा अहिंसा का पक्ष लिया लेकिन तब तक जब तक कि हिंसा मजबूरी ना बन जाए, वो जिसने गरदन को फंदे के लिए पेश किया, न कि झुकने के लिए वो जो आस्तिक से नास्तिक बना, वो जिसने क्रांति की सारी हदें-सारी सीमाएं तोड़ ड़ालीं, वो जिसका जन्म ही भागों वाले की तरह हुआ, वो जिसका आज जन्म दिवस हैं। जी हां! आज भारतीय क्रांति के अजीब परवाने शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म दिवस है
    आपको अजीब लगेगा, लेकिन ये सच हैं कि उनका जन्म आश्विन शुक्ल त्रयोदशी के दिन संवत् 1964 को हुआ यानी आज ही के दिन 19 अक्टूबर 1907 को । विडम्बना हैं कि उनके जन्म की तारीख को भी जनता के आगे सही तरीके से पेश नहीं किया गया। उनके जन्म दिन को 28 सितम्बर को ही माना जाता है, कोई इसे सही करने की कोशिश भी नहीं करता । खैर................
    उनका जन्म इसी दिन पंजाब प्रांत के गांव बंगा, तहसील जड़ाँवाला, जिला लायलपुर(वर्तमान फैसलाबाद जिला, पाकिस्तान) में हुआ। उनके जन्म के दिन पर ही सरदार के परिवार को तीन मंगल समाचार भी मिले 
    पहला ये कि उनके चाचा अजीतसिंह जी को मुक्त कर दिया गया है और वे स्वदेश लौट रहे हैं।
    दूसरा ये कि सरदार कृष्ण सिंह जी नेपाल से लाहौर आ गये हैं।
    तीसरा ये कि सरदार सुवर्ण सिंह जी भी जेल से छूटकर घर आ रहे हैं। 
अपने तीनों बिछड़े पुत्रों के बारे में ये सुखद समाचार सुनकर ही उनकी दादी ने अपने पोते के जन्म को किस्मत वाला बताया और उनका नाम भगतसिंह यानी भागों वाला रखा। 
   उनके पिता सरदार किशन सिंह, चाचा सरदार अजीत, सुवर्ण, और कृष्ण सिंह जी  सभी देश हित के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। यहाँ तक की कईं क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन तो उनके घर से ही होता था। तो सोचिए जिसे विरासत में ही क्रांति की ज्वाला और देशभक्ति की सीख मिली हो वो भला इन सबसे कैसे अछूता रह सकता सकता था। तो चल पड़े वे भी अपने अग्रजों की राह पे। उनकी माता विद्यावती देवी ने भी उन्हें मातृभूमि पर मर मिटने की सीख दी।
   वे छोटे थे तब से ही उन्हें निडर रहने की सीख दी गयी थी। खौफ तो उनकी आंखों में कभी दिखा ही नहीं। अपने पिता के लाडले होने की वजह से सरदार जी के साथ वे भी छोटी उम्र में ही देशभक्ति पूर्ण बैठकों और बडी-बडी मन्त्रणाओं की हिस्सा होते थे। तब से ही उनके दिमाग में फिरंगियों से माँ भारती को आजाद कराने के विचार ने घर कर लिया था। घर में भी अक्सर वे तुतलाती जबान में गांधी जी जिन्दाबाद और इंकलाब जिन्दाबाद के नारे लगाते रहते थे । 
   उनके बचपन का एक वाकया हैं- सन् 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था, तब वे पूरे 12 सालों के भी नहीं थे, पर जब उन्हें इस नृशंस कृत्य का पता चला तो वे अपने स्कूल से ही घर वालों को बिना बताये अपने गांव से कईं  कोस दूर पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुँचे थे। फिर वहां का मंजर देखकर कई घंटों तक फूटफूट कर रोए थे। आते वक्त वे वहां से उस जगह की मिट्टी लाये थे। उस मिट्टी की वे हमेशा पूजा किया करते थे। 
    वे करतार सिंह सराभा से बहुत प्रभावित थे, लेकिन अपने आदर्श को उन्होंने इस हैवानी करतूत में खो दिया था। अब वे कहां रुकने वाले थे, अभी तक वे क्रान्ति का पूरा मतलब भी ना समझते थे, लेकिन चल दिए इस कांटों भरी राह पर।
    वे गांधी जी के आंन्दोलनों को पूरा समर्थन देते थे, लेकिन फिर गांधी जी के असहयोग आंन्दोलन के अचानक बन्द करने से आहत होकर उन्होंने आजादी के लिए ईंट का जवाब पत्थर से देने की राह अपनाई और आगे चलकर अपने साथियों के साथ मिलकर एक नौजवान भारत सभा का गठन किया। 
    उधर आजाद जी, बिस्मिल जी और उनके कई साथी भी तेजी से आगे बढ रहे थे, कि काकोरी काण्ड ने उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को बिखेर कर रख दिया। भगत सिंह भी इस पार्टी के सदस्य बन गये और उनको मजबूत करने का काम किया। इस पार्टी के सदस्यों के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को खूब परेशान किया। वे ना कभी झुके और ना कहीं रुके। उन पर समाजवाद और लेनिन का काफी प्रभाव था। तो उन्होंने आजाद जी के साथ मिलकर इस पार्टी का नाम हिंदुस्तान सोशिएलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रख दिया । उनकी यह पार्टी बहुत तेजी से बढ़ रही थी और और वाहवाही लूट रही थी। उन्होंने पंडित जी और पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर योजनाएं बनाकर कई अंग्रेजी खजानों को लूटा और नेस्तनाबूद भी किया। 
    साॅण्डर्स की हत्या की व्यूह रचना भी उन्होंने ही रची थी। जब लाला लाजपत राय साइमन कमीशन का विरोध कर रहे थे तो अंग्रेजी कारिंदों ने उन्हें लाठियों से भांज कर मार डाला। भगतसिंह ने अपनी आंखों के आगे लाला जी को दम तोड़ते देखा था। तब से उन्होंने इस बात का बदला लेने की ठान ली थी और उन्होंने जयगोपाल, आजाद जी, बटुुकेश्वर दत्त और अन्य साथियों के साथ मिलकर स्काॅट को मारने की साजिश रची लेकिन साण्डर्स बीच में ही मारा गया। फिर उन्होंने इस बात के पर्चे भी बांटे जिसमें लिखा था लालाजी की मौत का बदला ले लिया गया साॅण्डर्स मारा गया। वे पढ़ने-लिखने के हमेशा से शौकीन तो नहीं थे पर जब उन्होंने पार्टी की सदस्यता ली तो वहाँ की बहसों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए पढ़ना शुरू किया। फिर तो उन्हें पढ़ने और हमेशा कुछ नया सीखने की लत लग गई। वे एक नहीं पांच-पांच भाषाएं जानते थे पंजाबी तो उन्हें घर ही से मिली थी, हिन्दी देशप्रेम ने सिखाई, उर्दू पढ़ने से, अंग्रेजी क्रांति ने और बंगाली उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने उन्हें सिखाई। उनके प्रिय साथी भी उनसे इस बात पर बहस करा करते थे कि भगत तुम क्या दिन भर पढ़ते रहते हो, लेकिन वे बस मुस्करा देते थे। 
    असेंबली में बम फेंकने का विचार भी उन्हीं का था। वे कहते थे कि अंग्रेजी सरकार सो चुकी है, उसे जगाने के लिए धमाके की जरूरत है। जब पूरी प्लानिंग की गयी तो उन्होंने खुद का और बटुकेश्वर दत्त का नाम दिया जो आज़ाद जी को नहीं जचा। उन्होंने कहा कि भगत अगर तुम ही जेल चले गये तो पार्टी का क्या होगा, हमारी पार्टी बिखर जाएगी और हुआ भी यही। तब भगत सिंह ने कहा कि पण्डित जी यदि एक करतार सिंह सराभा की मौत एक भगत सिंह पैदा कर सकती है तो सोचिए कि एक भगत सिंह की मौत कितने भगत सिंह पैदा कर सकती है। आखिर पंडित जी माने और भगतसिंह को अनुमति दी गयी। वे और बटुकेश्वर दत्त भेष बदलकर असेंबली में गये फिर अचानक बम फेंककर जोर-जोर से इंकलाब जिन्दाबाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ पर्चे उछालने लगे। बाद मे खुद ही हथकड़ी के लिए हाथ आगे कर दिए , ये सब उनकी योजना का हिस्सा था।
    जब वे जेल पहुंचे तो उन्होंन देखा कि कैदियों के साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव होता है इसी कारण उन्होंने जेल में भूख हड़ताल कर दी । तब तक उनके साथी सुखदेव, और राजगुरू भी जेल आ चुके थे। जेल में उनसे प्रेरित होकर अन्य सभी ने भी उनके साथ भूख हड़ताल कर दी। उन्होंने जेल में 64 दिनों तक भूख हड़ताल की इस दौरान उनके साथी यतींद्रनाथ दास ने तो बीच में ही दम तोड़ दिया, लेकिन फिर भी उन्होंने हड़ताल तभी  समाप्त की जब उनकी मांगें मान ली गयी। 
   असेम्बली में बम फेंकने के बारे में जब उनसे सवालात किये गए तो उन्होंने जज से कहा कि जो बम बनाना जानते हैं वे बम की ताकत का भी अंदाजा भी रखते हैं। उन्होंने कहा कि हमारा उद्देश्य केवल सोई सरकार को जगाना था किसी को मारना नहीं। उन्होंने ये भी कहा कि हमें पता हैं कि हमारी फांसी तय हैं तो फिर ये सवाल-जवाब क्यों? फिर आखिरकार वही हुआ जो तय था। 7 अक्टूबर 1930 को ये फैसला दिया गया कि भगतसिंह को सुखदेव और राजगुरू के साथ 24 मार्च को फांसी दी जायेगी। भगत सिंह और उनके साथियों को बहुत समझाने के बाद भी उन्होंने फांसी की सजा माफ करने के लिए कोई भी याचिका दायर नहीं की। वे मरकर क्रांति की ज्वाला को और तेज करना चाहते थे। जेल के दिन भी उन्होंने स्वाभिमान के साथ गुजारे। जेल में रहकर भी वे नियमित रूप से लिखा करते थे। उन्होंने कईं लेख और पत्र लिखे जिनमें से WHY I AM ATHIEST (मैं नास्तिक क्यों हूँ) और अपने भाई कुलतार को लिखा पत्र बहुत प्रसिद्ध है। 
   अंग्रेज सरकार उनकी प्रसिद्धि से इतनी घबरायी हुई थी कि जो फांसी 24 को सुबह होनी थी वो 23 को शाम को ही दे दी गयी ताकि किसी को पता भी न चल सके और ना ही किसी का विरोध सहन करना पड़े।  
   जब उनसे कहा गया कि फांसी का वक्त हो गया हैं तब वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्होंने सिपाही से कहा कि दो मिनट रूको! पहले एक क्रांतिकारी को दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो लेने दो। फिर किताब को हवा में उछाल कर कहा कि चलो, अब वे तैयार हैं और फिर रंग दे बंसती चोला गाते हुए हंसते-हंसते चल दिये और फंदे को गले लगाकर हो गये हमेशा के लिए अमर। 
   विडम्बना देखिए इस देश की, कि जिस रस्सी से गांधी जी की बकरी को बांधा जाता था उसे तो संग्रहालय में जगह मिलती हैं और देश के क्रांतिकारियों के फंदे देश की जनता को नहीं बताये जाते।
   ये महान देशभक्त तो हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों में अमर हो गया, क्रांति की नई परिपाटी का सूत्रपात करके शून्य में विलीन हो गया, लेकिन इस देश ने इसे क्या दिया???
   भगतसिंह महज एक व्यक्ति नहीं हैं , एक नाम नहीं हैं, वो तो एक वाद हैं- भगतवाद। ये नाम भारत की फजांओं में ठीक वैसे ही गुंजायमान रहेगा जैसे जंगल में कलरव। जैसे बिना कलरव के जंगल की कल्पना नहीं की जा सकती वैसे ही बिना भगतवाद के भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। 
इंकलाब जिन्दाबाद
   अगर गांधी देश के राष्ट्रपिता हो सकते हैं तो फिर भगतसिंह राष्ट्रपुत्र क्यों नहीं?????
   सवाल के जवाब का इंतजार रहेगा सरकार से और हर देशवासी से................
भगत सिंह के जीवन से जुडी अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं अगले अंक में..........
- दिनेश कुमार जोशी 

शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

BHAMASHAH VEER : AMAR CHAND BATHIYA

अमर चंद बाठिया 

    1857 एक ऐसा वर्ष जिसे सुनकर ही हर भारतीय के मन में देशभक्ति, विद्रोह, सरफरोशी और संघर्ष जैसी भावनाएँ अनायास ही उमड़ने लगती हैं। एक ऐसा साल जिसने अंग्रेजी हुकुमत को अपनी सोच बदलने को मजबूर किया। एक ऐसा वर्ष जिसने सर्वप्रथम भारतीयों के मन को क्रांति की भावना से सराबोर किया। ऐसी तिथि जिसने शहादत शब्द को पूर्णतः परिभाषित किया। तो एक नज़र उस महान वर्ष के एक वीर पर............  
    यह वाकया उन दिनों का है जब वर्ष 1857 में आजादी के  संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहब और अन्य कई बहादुर सेनानायकों के नेतृत्व में  जुझारू सैनिक अंग्रेजी सेना से लोहा ले रहे थे। शीघ्र ही विद्रोहियों और उनके सेना नायकों के सामने एक बड़ी समस्या यह आ खड़ी हुई कि उनके पास हथियारों की कमी होने लगी और ऐसी स्थिति में संघर्ष को लंबा चलाना दुष्कर प्रतीत हो रहा था। हथियारों के लिए धन आवश्यक था जो उनके पास था नहीं। आर्थिक कमी को दूर करने के लिए उन्हें किसी ऐसे भामाशाहों की आवश्यकता थी जो मुक्त हस्त उनकी मदद कर सके। ऐसे समय आजादी के दीवानों की मदद करने के लिए आगे आए ग्वालियर राजकीय कोष गंगाजली के प्रमुख श्री अमरचंद बांठिया। उन्होंने खजाने के द्वार विद्रोही सेना के लिए खोल दिए।  
    कहा जाता है कि यदि अमरचंद बांठिया ने 1857 के क्रांति वीरों का सहयोग नहीं किया होता तो क्रांतिवीरों के सामने अपने जीवन और संघर्ष को चलाएं रखने की कठिन परिस्थिति पैदा हो सकती थी। संग्राम संघर्ष पूरा होने के बाद इस देश भक्त को अंग्रेजों ने सरेआम फांसी दे डाली। ग्वालियर के इतिहास में 22 जून 1857 की तिथि को अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक माना जाता है। इसी दिन ग्वालियर राज्य के राजकीय कोषागार के खजांची अमरचंद बांठिया को फांसी के फंदे पर लटका दिया था। उन्हें ग्वालियर के सर्राफा बाजार के अंदर नीम के पेड़ से लटका कर फांसी दी गई थी और चेतावनी के रूप में उनका मृतक शरीर इसी प्रकार  कई दिनों तक लटकाए रखा गया था। ऐसे देश प्रेमियों पर देश को नाज है। पूरा भारतवर्ष उनके इस बलिदान का सदैव ऋणी रहेगा
-महेंद्र कुमार जोशी 

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

KAVIRAJ KARNIDAN KAVIYA


कविराज करनी दान कविया 

   कवि करणी दान कविया का जन्म जयपुर आमेर रियासत के डोगरी गांव में हुआ था। यह डोगरी गांव करणी दान के पूर्वज डूंगरसी को मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा प्रदान किया गया था। करणी दान के पिता का नाम विजय राम और दादा का नाम प्रयाग दान था। इनके पिता विजयराम भी अच्छे कवि और समाज में माने हुए आदमी थे। इनकी माता का नाम इतिया बाई था। इनकी एक बहन थी जिनका नाम बृज बाई था और वह विदुषी और अच्छी कवयित्री थी। करणी दान की दो शादियां हुई उनकी एक पत्नी तहलेवाली गांव की थी और दूसरी झुडिया गांव की थी। उनके अनुप राम ,राम दास और लच्छीराम 3 पुत्र थे जिनमें से अनुप राम उनके पाटवी पुत्र थे। जवानी में करणीदन शाहपुरा, डूंगरपुर और उदयपुर में निवास करते रहे और अंत में जोधपुर पहुंचकर स्थाई रूप से रहने लगे। बाद में जोधपुर में महाराजा बख़त सिंह के शासनकाल में करणी दान किशनगढ़ चले गए थे और वही जीवन की अंतिम सांस ली। उदयपुर के महाराजा संग्राम सिंह द्वितीय इनके गीतों और छंदों को मंत्रों की भांति पूजा  करते थे। महाराजा अभयसिंह और रामसिंह के बाद जोधपुर का शासन काल बख्तसिंह के हाथों में  आया और उनके शासनकाल में यह किशन गढ़ जा बसे। उनकी मृत्यु भी किशनगढ़ में ही हुई थी।कवि करनी दान की प्रामाणिक जन्म तथा मृत्यु तिथि  प्राप्त नहीं हुई है।           
    करणी दान का प्रारंभिक जीवन शाहपुरा में बीता और वहीं उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया। विक्रम संवत 1824  अर्थात् ई. सन 1767 के करीब  शाहपुरा नरेश उम्मेद सिंह ने मराठों के खिलाफ मेवाड़ी सेना का नेतृत्व करते हुए अद्भुत रण कौशल  प्रदर्शित किया और अपनी जान की बाजी लगा दी। तब करणी दान ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मर सियों के रूप में कई गीतों और दोहों की रचना की। शाहपुरा के बाद करणी दान डूंगरपुर पहुंचे और उन्होंने वहां तत्कालीन नरेश रावल शिव सिंह को अपनी काव्य प्रतिभा से प्रसन्न कर दिया। रावल  शिव सिंह की प्रशंसा में इनके द्वारा कई गीतों और दोहों की रचना की गई। शिव सिंह ने कविराज करणी दान को प्रसन्न होकर लाख मुद्राओं से सम्मानित किया। वहां से करणी दान उदयपुर पहुंचे। इस समय उदयपुर में महाराजा संग्राम सिंह द्वितीय का शासन था ।जब उन्होंने वहां पहुंचकर सिसोदिया वंश की गौरव गाथा और मेवाड़ के महाराणाओं के पराक्रम की अभिव्यक्ति करने वाले चार-पांच गीत सुनाए तो उन्होंने महाराणा को मंत्रमुग्ध हो उठे और वही उन्हें कविराज की उपाधि प्राप्त हुई। यहां तक कि महाराजा संग्राम सिंह ने कविराज करणी दान के गीतों और दोहों को मडवा कर उन्हें पूजा गृह में रखवा दिया तथा रोज उनकी पूजा करना प्रारंभ कर दिया। साथ ही महाराणा ने इन्हें लाख मुद्राए देकर सम्मानित भी किया। कविराज ने उदयपुर में काफी समय तक निवास किया। उनके द्वारा उदयपुर के महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय और महाराणा जगतसिंह दोनों की प्रशंसा में लिखे हुए कई गीत उपलब्ध है।
    कहा जाता है कि एक बार शाहपुरा नरेश के साथ कविराज किसी विवाह समारोह के अवसर पर उदयपुर गए हुए थे। वहां जोधपुर ,उदयपुर आदि अनेक रियासतों के राजकवि इकट्ठा हुए थे। समस्त कवि अपनी अपनी साहित्यिक रचनाएं प्रस्तुत कर रहे थे। इसी अवसर पर कवि करनी दान द्वारा उदयपुर महाराणा की प्रशंसा में कई गीत एवं दोहे प्रस्तुत किए गए। उनमें एक दोहा निम्नानुसार थाः-                                                                                                      
डोले नहदी डीकरी, नव रोजे निर्माण।
हुआ न कोई होवसी, सिसोदिया समान।।

    कहा जाता है कि इस दोहे को सुनकर जोधपुर नरेश महाराजा अभय सिंह कविराज करणी दान की प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने विदाई के समय शाहपुरा नरेश से इनको मांग लिया। शाहपुरा नरेश ने जोधपुर महाराजा का सम्मान करते हुए करणी दान को जोधपुर दरबार में भिजवाया। जोधपुर में अपनी काव्य प्रतिभा, राजनीतिक सूझबूझ और शौर्य प्रदर्शन से करणी दान ने अत्यंत प्रसिद्धि अर्जित की। जोधपुर में ही उन्होंने अपने प्रसिद्ध प्रबंध काव्य सूरज प्रकाश की रचना की। इन्होंने महाराजा अभय सिंह के साथ कई युद्धों में भी सक्रिय भाग लिया और अपने शौर्य का प्रदर्शन किया। एक अवसर पर पुष्कर में कवि करणी दान की जोधपुर महाराजा अभयसिंह के साथ आमेर नरेश जयसिंह से मुलाकात हुई। उस वक्त आमेर नरेश ने जोधपुर और आमेर दोनों रियासतों को मिलाकर कुछ दोहे सुनाने की मांग रखी। करणी दान द्वारा तत्काल एक ऐसा दोहा रचा गया, जिसमें जयपुर नरेश द्वारा राज्य के लोभ में अपने पुत्र शिवसिंह और जोधपुर नरेश के छोटे भाई बखत सिंह द्वारा अपने पिता अजीत सिंह की हत्या करने पर व्यंग्य किया गया था

पत जैपुर जोधान पत, दोनूं थाप उथाप।
कूरम मार्यो डीकरो, कम धज मारियो बाप।।

    अहमदाबाद के युद्ध में करणी दान ने सक्रिय भाग लिया था और युद्ध की समाप्ति के उपरांत उन्होंने वृहत काव्य ग्रंथ सूरज प्रकाश की रचना की थी। संयोग से इसी समय वीरभान रतनू द्वारा अहमदाबाद युद्ध से संबंधित राज रूपक और बख़़ता खिड़िया ने 166 कवित्त लिखे थे। तीनों अपने अपने ग्रंथ महाराजा अभय सिंह को सुनाने गए। तीनों ग्रंथों को इतना बड़ा विस्तार से सुन पाना महाराजा के लिए व्यस्त जिंदगी में संभव नहीं था। अतः उन्होंने इन ग्रंथों को संक्षिप्त करने के लिए कहा। वीरभान रतनू और बखता जी अपने ग्रंथों का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत नहीं कर सके लेकिन करणी दान ने अहमदाबाद युद्ध को लेकर एक छोटा काव्य ग्रंथ तैयार कर दिया, जिसका नाम था विरद सिणगार। महाराजा ने इसे पूरा सुना और  बहुत प्रभावित हुए। महाराजा ने इसे सुनकर अपने हाथों से कवि करणी दान को पगड़ी और तुर्रे से सम्मानित किया और कवि राजा की उपाधि दी। कविराज की साथ ही लाख मुद्राएं प्रदान की गई और  आलावास नाम का गांव भी जागीर में दिया। यही नहीं महाराजा स्वयं उन्हें हाथी पर बिठा कर और स्वयं साथ-साथ घोड़े पर सवार होकर करणी दान को उनके घर तक पहुंचाने के लिए गए।
    महाराजा अभय सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राम सिंह जोधपुर नरेश बने। करणी दान ने राम सिंह की भी उसी स्वामी भक्ति से सेवा चाकरी की। बाद में  बखत सिंह के जोधपुर पर आक्रमण की सूचना मिलने पर करणी दान और जगन्नाथ पुरोहित दोनों ने ग्वालियर पहुंचकर रामसिंह की मदद के लिए मल्हार राव होल्कर से अनुरोध किया। मल्हार राव होल्कर ने सेना भेजकर राम सिंह की मदद की, लेकिन इस मदद के बावजूद भी राम सिंह परास्त हुए और जोधपुर के पर बखत सिंह का कब्जा हो गया। बखत सिंह की करनी दान से पहले से ही दुश्मनी थी। उनका अधिकार होते ही अन्य चारणों और पुरोहितों के साथ करणी दान की जागीर का गांव अलावास छीन लिया गया । इस अपमान जनक व्यवहार के बाद करणी दान जोधपुर छोड़कर एकांतवास हेतु किशनगढ़ की तरफ चले गए। रास्ते में किशनगढ़ नरेश बहादुर सिंह जी ने करणी दान को किशनगढ़ में रहने के लिए मना लिया। करणी दान का शेष समय किशनगढ़ में ही बीता तथा किशनगढ़ में उनका स्वर्गवास हुआ। इस प्रकार राजस्थान के एक महान कवि  की आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई। अब तक कविराज करणी दान की जो कृतियां उपलब्ध है, उनमें सूरज प्रकाश, विरद सिणगार, जत्ती रासो, अभय भूषण तथा स्फुट गीत मुख्य है। उनका प्रमुख सूरज प्रकाश 7500 छंदों का एक विशाल ग्रंथ है, जिसमें मुख्य रूप से जोधपुर महाराजा अभयसिंह द्वारा गुजरात के सूबेदार सर बुलंद खान के विरुद्ध जो युद्ध किया गया था ,उसका काव्यात्मक रूप में सुंदर वर्णन है।
-: महेंद्र कुमार जोशी 

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

VEER AMAR SINGH RATHORE

   

मारवाड़ के वीर : अमर सिंह राठौड़ 

 अमर सिंह राठौड़ मारवाड़ नरेश गजसिंह प्रथम के ज्येष्ठ पुत्र थे और ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते गद्दी के दावेदार थे परंतु क्रोधी और उद्दंड होने की वजह से गज सिंह ने अपनी पासवान अनारा बेगम के कहने से अपने जीवनकाल में ही अपने द्वितीय पुत्र जसवंत सिंह प्रथम को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। साथ ही उन्होंने  अमर सिंह को मारवाड़ से चले जाने का आदेश दिया स्वाभिमानी अमर सिंह पिता द्वारा दिए गए काले वस्त्रों को धारण कर काले घोड़े पर सवार होकर मारवाड़  त्याग कर रवाना हुए। इतिहासकारों के अनुसार कई राजपूत सरदारों को भी वह अपने साथ लेकर गए थे और बाद में वे मुगल बादशाह शाहजहां के दरबार में आगरा पहुंचे। अमर सिंह पराक्रमी और युद्ध कौशल के जानकार थे, अतः उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप बादशाह शाहजहां ने राव की उपाधि से नवाजा और काबुल की लड़ाई में वर्ष 1641-42 में अपनी सेना का सेनापति बना कर काबुुुल भेजा। काबुल में अमर सिंह ने विजय प्राप्त की। उनकी इस जीत से प्रसन्न बादशाह शाहजहां ने अमर सिंह को नागौर की जागीर और 4000 मनसब प्रदान किया। अमर सिंह को शिकार खेलने का बहुत शौक था और अपने इसी शौक के चलते वह मुगल दरबार में नियमित रूप से उपस्थित नहीं हो पाते थे। बादशाह इस अनुपस्थिति पर उन पर जुर्माना लगाने की धमकी देता परंतु अमर सिंह पर कोई असर नहीं होता। एक बार बादशाह ने अपने बक्शी सलावत खां को जुर्माना वसूल करने के लिए नागौर भेजा, लेकिन अमरसिंह ने जुर्माने से साफ इंकार कर दिया। सलावत खा ने आगरा में बादशाह को इस की जानकारी दी और कुपित बादशाह ने अमर सिंह को आगरा तलब किया। आखिर अमर सिंह को आगरा दरबार में आना पड़ा। उस समय की दरबारी परंपरा के अनुसार यह रिवाज  था कि कोई मनसबदार बादशाह को सलाम करें तो पहले उसे बक्शी यानी सलावत खां से अनुमति लेनी पड़ती थी। क्योंकि राव अमरसिंह गुस्सैल थे और जवान भी थे और बादशाह के बार-बार बुलाने पर आगरा पहुंचे थे ,उन्होंने बक्शी सलामत खां को पूछे बिना ही बादशाह को मुजरा किया। इस पर सलामत खा ने अमर सिंह को अपशब्द कहते हुए गवार कहने की कोशिश की। इस संबंध में  एक कवि की उक्ति है कि
इत मुख ते गाग्गो  कहियो उत कर लई कटार।।
वार कहन पायो नहीं जमघर हो गई पार।।
    सालावत खां अभी अमरसिंह को गंवार कह भी नहीं पाया था कि अमर सिंह ने अपनी कटार इतनी जोर से फेंकी कि सलावत खां मारा गया और वह कटार सलावत खां के मर्म को भेद कर खंभे से जा टकराई। यदि खंबा बीच में ना होता तो उस कटार से बादशाह को भी चोट पहुंच सकती थी। अमर सिंह के इस आकस्मिक हमले से शाहजहां के राज दरबार में भगदड़ मच गई और तुरंत ही सारा दरबार खाली हो गया। भयभीत बादशाह शाहजहां सिहासन छोड़कर रनवास की ओर भागा। बादशाह को भयभीत देख बेगम ने कारण पूछा जिसका उल्लेख कवि ने इन शब्दों में किया है                                             
बीबी करो नबी को याद खुदा ने जान बचाई है आज।।
   अमर सिंह के इस आक्रमण से राज दरबार में तहलका मच गया ।अमर सिंह शेर की तरह टूट पड़ा और जो भी सामने आया उसकी तलवार से मारा गया ।मामूली अंतराल में मुगल सेना के 5 सेनापति मारे गए और सारा दरबार खून से भर गया ।अमर सिंह की वीरता और साहस पर एक कवि ने निम्नानुसार वर्णन अपनी कविता में किया है                                            
शाहजहां कहै यार सभा माही बार-बार।
अमर की कमर में कहां की कटारी थी।।
शाही को सलाम करें मारियो तो सलावत खां।
दिखा गयो मरोर सूरवीर धीर आगरो।।
मीर उमरावन की कचेडी धुजाय डारी ।
खेलत शिकार जैसे मृगन में बागरो।
कहे पनराज गजसिंह के अमरसिंह ।
राखी रजपूती मजबूती नव नागरो।
पाव सेर लौह से हिलाई सारी पतसाही ।
होती शमसीर तो छिनाय लेतो आगरो।
महेंद्र कुमार जोशी 

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

स्वाभिमानी  वीर :  महाराणा प्रताप     वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। वह तिथि धन्य है जब मेवाड़ की शौर्...