अमर चंद बाठिया
1857 एक ऐसा वर्ष जिसे सुनकर ही हर भारतीय के मन में देशभक्ति, विद्रोह, सरफरोशी और संघर्ष जैसी भावनाएँ अनायास ही उमड़ने लगती हैं। एक ऐसा साल जिसने अंग्रेजी हुकुमत को अपनी सोच बदलने को मजबूर किया। एक ऐसा वर्ष जिसने सर्वप्रथम भारतीयों के मन को क्रांति की भावना से सराबोर किया। ऐसी तिथि जिसने शहादत शब्द को पूर्णतः परिभाषित किया। तो एक नज़र उस महान वर्ष के एक वीर पर............
यह वाकया उन दिनों का है जब वर्ष 1857 में आजादी के संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहब और अन्य कई बहादुर सेनानायकों के नेतृत्व में जुझारू सैनिक अंग्रेजी सेना से लोहा ले रहे थे। शीघ्र ही विद्रोहियों और उनके सेना नायकों के सामने एक बड़ी समस्या यह आ खड़ी हुई कि उनके पास हथियारों की कमी होने लगी और ऐसी स्थिति में संघर्ष को लंबा चलाना दुष्कर प्रतीत हो रहा था। हथियारों के लिए धन आवश्यक था जो उनके पास था नहीं। आर्थिक कमी को दूर करने के लिए उन्हें किसी ऐसे भामाशाहों की आवश्यकता थी जो मुक्त हस्त उनकी मदद कर सके। ऐसे समय आजादी के दीवानों की मदद करने के लिए आगे आए ग्वालियर राजकीय कोष गंगाजली के प्रमुख श्री अमरचंद बांठिया। उन्होंने खजाने के द्वार विद्रोही सेना के लिए खोल दिए।
कहा जाता है कि यदि अमरचंद बांठिया ने 1857 के क्रांति वीरों का सहयोग नहीं किया होता तो क्रांतिवीरों के सामने अपने जीवन और संघर्ष को चलाएं रखने की कठिन परिस्थिति पैदा हो सकती थी। संग्राम संघर्ष पूरा होने के बाद इस देश भक्त को अंग्रेजों ने सरेआम फांसी दे डाली। ग्वालियर के इतिहास में 22 जून 1857 की तिथि को अत्यंत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक माना जाता है। इसी दिन ग्वालियर राज्य के राजकीय कोषागार के खजांची अमरचंद बांठिया को फांसी के फंदे पर लटका दिया था। उन्हें ग्वालियर के सर्राफा बाजार के अंदर नीम के पेड़ से लटका कर फांसी दी गई थी और चेतावनी के रूप में उनका मृतक शरीर इसी प्रकार कई दिनों तक लटकाए रखा गया था। ऐसे देश प्रेमियों पर देश को नाज है। पूरा भारतवर्ष उनके इस बलिदान का सदैव ऋणी रहेगा।
-महेंद्र कुमार जोशी
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