राष्ट्रपुत्र : भगत सिंह
अजीब इत्तेफाक हैं आज के दिन में, एक ओर बुराई का खात्मा होता है और दूसरी ओर बुराईयों से लड़ने वाली इंकलाबी ताकत का जन्म होता है। हमारे देश में वतनपरस्त खूब हुए लेकिन उन्हें वो सम्मान, वो आदर, वो प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसके वे असल हकदार हैं। इस मुल्क में क्रांतिकारियों के बारे में हमेशा लोगों को गुमराह किया गया, उनके देश प्रेम को भी गलत तरीके से पेश किया गया। यहाँ तक कि उनकी जन्मतिथि जैसी महत्वपूर्ण जानकारी को भी देशवासियों को सही नहीं बताया गया।
वो आदमी जिसने इंकलाब को वैदिक मंत्रों जितना महत्व दिया, वो जिसने कसम खायी वतन पे मरने की, वो जिसने जां लुटा दी मातृभूमि की ख़ातिर वो जिसने हमेशा अहिंसा का पक्ष लिया लेकिन तब तक जब तक कि हिंसा मजबूरी ना बन जाए, वो जिसने गरदन को फंदे के लिए पेश किया, न कि झुकने के लिए वो जो आस्तिक से नास्तिक बना, वो जिसने क्रांति की सारी हदें-सारी सीमाएं तोड़ ड़ालीं, वो जिसका जन्म ही भागों वाले की तरह हुआ, वो जिसका आज जन्म दिवस हैं। जी हां! आज भारतीय क्रांति के अजीब परवाने शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म दिवस है।
आपको अजीब लगेगा, लेकिन ये सच हैं कि उनका जन्म आश्विन शुक्ल त्रयोदशी के दिन संवत् 1964 को हुआ यानी आज ही के दिन 19 अक्टूबर 1907 को । विडम्बना हैं कि उनके जन्म की तारीख को भी जनता के आगे सही तरीके से पेश नहीं किया गया। उनके जन्म दिन को 28 सितम्बर को ही माना जाता है, कोई इसे सही करने की कोशिश भी नहीं करता । खैर................
उनका जन्म इसी दिन पंजाब प्रांत के गांव बंगा, तहसील जड़ाँवाला, जिला लायलपुर(वर्तमान फैसलाबाद जिला, पाकिस्तान) में हुआ। उनके जन्म के दिन पर ही सरदार के परिवार को तीन मंगल समाचार भी मिले
पहला ये कि उनके चाचा अजीतसिंह जी को मुक्त कर दिया गया है और वे स्वदेश लौट रहे हैं।
दूसरा ये कि सरदार कृष्ण सिंह जी नेपाल से लाहौर आ गये हैं।
तीसरा ये कि सरदार सुवर्ण सिंह जी भी जेल से छूटकर घर आ रहे हैं।
अपने तीनों बिछड़े पुत्रों के बारे में ये सुखद समाचार सुनकर ही उनकी दादी ने अपने पोते के जन्म को किस्मत वाला बताया और उनका नाम भगतसिंह यानी भागों वाला रखा।
उनके पिता सरदार किशन सिंह, चाचा सरदार अजीत, सुवर्ण, और कृष्ण सिंह जी सभी देश हित के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। यहाँ तक की कईं क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन तो उनके घर से ही होता था। तो सोचिए जिसे विरासत में ही क्रांति की ज्वाला और देशभक्ति की सीख मिली हो वो भला इन सबसे कैसे अछूता रह सकता सकता था। तो चल पड़े वे भी अपने अग्रजों की राह पे। उनकी माता विद्यावती देवी ने भी उन्हें मातृभूमि पर मर मिटने की सीख दी।
वे छोटे थे तब से ही उन्हें निडर रहने की सीख दी गयी थी। खौफ तो उनकी आंखों में कभी दिखा ही नहीं। अपने पिता के लाडले होने की वजह से सरदार जी के साथ वे भी छोटी उम्र में ही देशभक्ति पूर्ण बैठकों और बडी-बडी मन्त्रणाओं की हिस्सा होते थे। तब से ही उनके दिमाग में फिरंगियों से माँ भारती को आजाद कराने के विचार ने घर कर लिया था। घर में भी अक्सर वे तुतलाती जबान में गांधी जी जिन्दाबाद और इंकलाब जिन्दाबाद के नारे लगाते रहते थे ।
उनके बचपन का एक वाकया हैं- सन् 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था, तब वे पूरे 12 सालों के भी नहीं थे, पर जब उन्हें इस नृशंस कृत्य का पता चला तो वे अपने स्कूल से ही घर वालों को बिना बताये अपने गांव से कईं कोस दूर पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुँचे थे। फिर वहां का मंजर देखकर कई घंटों तक फूटफूट कर रोए थे। आते वक्त वे वहां से उस जगह की मिट्टी लाये थे। उस मिट्टी की वे हमेशा पूजा किया करते थे।
वे करतार सिंह सराभा से बहुत प्रभावित थे, लेकिन अपने आदर्श को उन्होंने इस हैवानी करतूत में खो दिया था। अब वे कहां रुकने वाले थे, अभी तक वे क्रान्ति का पूरा मतलब भी ना समझते थे, लेकिन चल दिए इस कांटों भरी राह पर।
वे गांधी जी के आंन्दोलनों को पूरा समर्थन देते थे, लेकिन फिर गांधी जी के असहयोग आंन्दोलन के अचानक बन्द करने से आहत होकर उन्होंने आजादी के लिए ईंट का जवाब पत्थर से देने की राह अपनाई और आगे चलकर अपने साथियों के साथ मिलकर एक नौजवान भारत सभा का गठन किया।
उधर आजाद जी, बिस्मिल जी और उनके कई साथी भी तेजी से आगे बढ रहे थे, कि काकोरी काण्ड ने उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को बिखेर कर रख दिया। भगत सिंह भी इस पार्टी के सदस्य बन गये और उनको मजबूत करने का काम किया। इस पार्टी के सदस्यों के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को खूब परेशान किया। वे ना कभी झुके और ना कहीं रुके। उन पर समाजवाद और लेनिन का काफी प्रभाव था। तो उन्होंने आजाद जी के साथ मिलकर इस पार्टी का नाम हिंदुस्तान सोशिएलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रख दिया । उनकी यह पार्टी बहुत तेजी से बढ़ रही थी और और वाहवाही लूट रही थी। उन्होंने पंडित जी और पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर योजनाएं बनाकर कई अंग्रेजी खजानों को लूटा और नेस्तनाबूद भी किया।
साॅण्डर्स की हत्या की व्यूह रचना भी उन्होंने ही रची थी। जब लाला लाजपत राय साइमन कमीशन का विरोध कर रहे थे तो अंग्रेजी कारिंदों ने उन्हें लाठियों से भांज कर मार डाला। भगतसिंह ने अपनी आंखों के आगे लाला जी को दम तोड़ते देखा था। तब से उन्होंने इस बात का बदला लेने की ठान ली थी और उन्होंने जयगोपाल, आजाद जी, बटुुकेश्वर दत्त और अन्य साथियों के साथ मिलकर स्काॅट को मारने की साजिश रची लेकिन साण्डर्स बीच में ही मारा गया। फिर उन्होंने इस बात के पर्चे भी बांटे जिसमें लिखा था लालाजी की मौत का बदला ले लिया गया साॅण्डर्स मारा गया। वे पढ़ने-लिखने के हमेशा से शौकीन तो नहीं थे पर जब उन्होंने पार्टी की सदस्यता ली तो वहाँ की बहसों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए पढ़ना शुरू किया। फिर तो उन्हें पढ़ने और हमेशा कुछ नया सीखने की लत लग गई। वे एक नहीं पांच-पांच भाषाएं जानते थे। पंजाबी तो उन्हें घर ही से मिली थी, हिन्दी देशप्रेम ने सिखाई, उर्दू पढ़ने से, अंग्रेजी क्रांति ने और बंगाली उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने उन्हें सिखाई। उनके प्रिय साथी भी उनसे इस बात पर बहस करा करते थे कि भगत तुम क्या दिन भर पढ़ते रहते हो, लेकिन वे बस मुस्करा देते थे।
असेंबली में बम फेंकने का विचार भी उन्हीं का था। वे कहते थे कि अंग्रेजी सरकार सो चुकी है, उसे जगाने के लिए धमाके की जरूरत है। जब पूरी प्लानिंग की गयी तो उन्होंने खुद का और बटुकेश्वर दत्त का नाम दिया जो आज़ाद जी को नहीं जचा। उन्होंने कहा कि भगत अगर तुम ही जेल चले गये तो पार्टी का क्या होगा, हमारी पार्टी बिखर जाएगी और हुआ भी यही। तब भगत सिंह ने कहा कि पण्डित जी यदि एक करतार सिंह सराभा की मौत एक भगत सिंह पैदा कर सकती है तो सोचिए कि एक भगत सिंह की मौत कितने भगत सिंह पैदा कर सकती है। आखिर पंडित जी माने और भगतसिंह को अनुमति दी गयी। वे और बटुकेश्वर दत्त भेष बदलकर असेंबली में गये फिर अचानक बम फेंककर जोर-जोर से इंकलाब जिन्दाबाद साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ पर्चे उछालने लगे। बाद मे खुद ही हथकड़ी के लिए हाथ आगे कर दिए , ये सब उनकी योजना का हिस्सा था।
जब वे जेल पहुंचे तो उन्होंन देखा कि कैदियों के साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव होता है इसी कारण उन्होंने जेल में भूख हड़ताल कर दी । तब तक उनके साथी सुखदेव, और राजगुरू भी जेल आ चुके थे। जेल में उनसे प्रेरित होकर अन्य सभी ने भी उनके साथ भूख हड़ताल कर दी। उन्होंने जेल में 64 दिनों तक भूख हड़ताल की इस दौरान उनके साथी यतींद्रनाथ दास ने तो बीच में ही दम तोड़ दिया, लेकिन फिर भी उन्होंने हड़ताल तभी समाप्त की जब उनकी मांगें मान ली गयी।
जब वे जेल पहुंचे तो उन्होंन देखा कि कैदियों के साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव होता है इसी कारण उन्होंने जेल में भूख हड़ताल कर दी । तब तक उनके साथी सुखदेव, और राजगुरू भी जेल आ चुके थे। जेल में उनसे प्रेरित होकर अन्य सभी ने भी उनके साथ भूख हड़ताल कर दी। उन्होंने जेल में 64 दिनों तक भूख हड़ताल की इस दौरान उनके साथी यतींद्रनाथ दास ने तो बीच में ही दम तोड़ दिया, लेकिन फिर भी उन्होंने हड़ताल तभी समाप्त की जब उनकी मांगें मान ली गयी।
असेम्बली में बम फेंकने के बारे में जब उनसे सवालात किये गए तो उन्होंने जज से कहा कि जो बम बनाना जानते हैं वे बम की ताकत का भी अंदाजा भी रखते हैं। उन्होंने कहा कि हमारा उद्देश्य केवल सोई सरकार को जगाना था किसी को मारना नहीं। उन्होंने ये भी कहा कि हमें पता हैं कि हमारी फांसी तय हैं तो फिर ये सवाल-जवाब क्यों? फिर आखिरकार वही हुआ जो तय था। 7 अक्टूबर 1930 को ये फैसला दिया गया कि भगतसिंह को सुखदेव और राजगुरू के साथ 24 मार्च को फांसी दी जायेगी। भगत सिंह और उनके साथियों को बहुत समझाने के बाद भी उन्होंने फांसी की सजा माफ करने के लिए कोई भी याचिका दायर नहीं की। वे मरकर क्रांति की ज्वाला को और तेज करना चाहते थे। जेल के दिन भी उन्होंने स्वाभिमान के साथ गुजारे। जेल में रहकर भी वे नियमित रूप से लिखा करते थे। उन्होंने कईं लेख और पत्र लिखे जिनमें से WHY I AM ATHIEST (मैं नास्तिक क्यों हूँ) और अपने भाई कुलतार को लिखा पत्र बहुत प्रसिद्ध है।
अंग्रेज सरकार उनकी प्रसिद्धि से इतनी घबरायी हुई थी कि जो फांसी 24 को सुबह होनी थी वो 23 को शाम को ही दे दी गयी ताकि किसी को पता भी न चल सके और ना ही किसी का विरोध सहन करना पड़े।
जब उनसे कहा गया कि फांसी का वक्त हो गया हैं तब वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्होंने सिपाही से कहा कि दो मिनट रूको! पहले एक क्रांतिकारी को दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो लेने दो। फिर किताब को हवा में उछाल कर कहा कि चलो, अब वे तैयार हैं और फिर रंग दे बंसती चोला गाते हुए हंसते-हंसते चल दिये और फंदे को गले लगाकर हो गये हमेशा के लिए अमर।
विडम्बना देखिए इस देश की, कि जिस रस्सी से गांधी जी की बकरी को बांधा जाता था उसे तो संग्रहालय में जगह मिलती हैं और देश के क्रांतिकारियों के फंदे देश की जनता को नहीं बताये जाते।
ये महान देशभक्त तो हमेशा अपने चाहने वालों के दिलों में अमर हो गया, क्रांति की नई परिपाटी का सूत्रपात करके शून्य में विलीन हो गया, लेकिन इस देश ने इसे क्या दिया???
भगतसिंह महज एक व्यक्ति नहीं हैं , एक नाम नहीं हैं, वो तो एक वाद हैं- भगतवाद। ये नाम भारत की फजांओं में ठीक वैसे ही गुंजायमान रहेगा जैसे जंगल में कलरव। जैसे बिना कलरव के जंगल की कल्पना नहीं की जा सकती वैसे ही बिना भगतवाद के भारत की कल्पना नहीं की जा सकती।
इंकलाब जिन्दाबाद
अगर गांधी देश के राष्ट्रपिता हो सकते हैं तो फिर भगतसिंह राष्ट्रपुत्र क्यों नहीं?????
सवाल के जवाब का इंतजार रहेगा सरकार से और हर देशवासी से................
भगत सिंह के जीवन से जुडी अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं अगले अंक में..........
भगत सिंह के जीवन से जुडी अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं अगले अंक में..........
- दिनेश कुमार जोशी
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