मंगलवार, 18 सितंबर 2018

JANTAR MANTAR

जंतर-मंतर

    कनाट प्लेस (नई दिल्ली) के पास, संसद मार्ग पर जंतर-मंतर नाम की वेध शाला है। इसमें ईंट-पत्थर से बने खगोल विद्या सम्बंधी कई यंत्र है। पहले यह इलाका माधोगंज कहलाता था।
    जयपुर के जंतर-मंतर का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह ने 1710ई. में कराया। कुछ इतिहासकार इसके निर्माण का वर्ष 1724ई. बताते हैं। मुहम्मद शाह रंगीला ने उन्हें आगरा और मालवा का गवर्नर बनाया था। इनके समय में मुगलों की स्थिति उतनी मजबूत नहीं थी। राज काज में अव्यवस्था का माहौल था। जयसिंह का काफी समय लडाईयों में लग जाता था। लेकिन सैनिक होने के साथ-साथ वे बहुत बडे विद्वान भी थे। इन्हें गणित और खगोल विज्ञान से बहुत लगाव था। इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम और यूरोपियन स्कूलों से कई किताबें इकट्ठी कीं। कुछ किताबों का अनुवाद कराया। खगोल विद्या के जानकारों को जयपुर बुलाया। वर्षों की मेहनत और खोज के आधार पर इन्होंने जन्तर-मन्तर के यन्त्रों का निर्माण कराया। इनका निर्माण ऐसे समय हुआ जब वैज्ञानिकों के पस केवल अनगढ़ यंत्र थे। जन्तर-मन्तर के यंत्र बहुत ठोस थे। इनसे की गई जांच पूरी तरह से सही होती थी। महाराजा जयसिंह ने इन यंत्रों की सहायता से 7 वर्षों तक नक्षत्रों की जांच की। एक तालिका बलाई। फिर भी इन्हे संतोष नहीं मिला। जयपुर, उज्जैन, बनारस और मथुरा में भी वेधशालाएं बनवाई। वहां से नक्षत्रों का अध्ययन होता था, फिर उनके और जंतर-मंतर के नतीजों को मिलाया जाता था। एक से नतीजे निकलने के बाद की जानकारी सही होती थी। इतनी मेहनत के बाद नक्षत्रों की चाल का पता करने वाली किताबें पूरी तौर से सही बन पाई।
    जंतर-मंतर में चार तरह के यंत्र लगे हुए थे- 1. सम्राट यंत्र, 2. जयप्रकाश, 3. राम यंत्र, 4. मिश्र यंत्र। इनमें से कई नष्ट हो चुके हैं। समय-समय पर इनकी मरम्मत होती रही है, लेकिन जानकारी के बिना की गई मरम्मत से भी बर्बाद हो गए हैं।
    आज हमारा विज्ञान काफी उन्नत है। ग्रह, नक्षत्रों के अध्ययन करने के लिए कई आधुनिक यंत्र बन चुके हैं। लेकिन आज से चार सौ साल पहले इस क्षेत्र में उठाया गया यह कदम सचमुच तारीफ के काबिल है।

-महेंद्र कुमार जोशी  

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