शक्ति एवं सरस्वती का मेलः महाराजा मानसिंह राठौड (13 फरवरी 1783 ई. से 4 सितम्बर 1843 ई.)
मारवाड के राठौड राजाओं मे से एक ऐसे दूरदर्शी महाराजा का ज़िक्र आज यहाँ किया जा रहा है, जिन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह अन्दाज़ा लगा लिया था कि अंग्रेज़ी कम्पनी अपनी कूटनीतिक चालों से समूचे हिन्दुस्तान कों गुलामी की जंजीरों में कैद करके ही छोडेगी। इसीलिये उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त अंग्रेज़ों का विरोध किया तथा अपने समकालीन समस्त रजवाडों के शासकों तथा सरदारों को भी संगठित हो कर अंग्रेज़ों को विरोध की प्रेरणा दी। यहाँ तक कि उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता के कट्टर दुश्मन मराठा सरदार यशवन्तराव होल्कर तथा अप्पा साहब भोंसले को भी अंग्रेजी हुकूमत की परवाह न करते हुए अपने राज्य में वक्त ज़रूरत शरण दी। लाॅर्ड विलियम बैंटिक ने जब अजमेर में शाही दरबार का आयोजन किया तो समस्त रजवाडों के राजाओं के उलट उन्होंने इस दरबार का बहिष्कार किया तथा उस जश्न में हाजिर नही हुए। वे लगातार अंग्रेजी हुकूमत की आज्ञाओं का उल्लंघन करते रहे तथा जीवन पर्यन्त खिराज चुकानें की अंग्रेजों की मांग को अनसुना करते रहे। जी हाँ; यहां ज़िक्र किया जा रहा है मारवाड के महाराजा मानसिंह का ।
महाराजा मानसिंह विद्वान, कवि तथा गुणों के पारखी थे। उनका व्यक्तित्व शक्ति तथा प्रज्ञा का अनूठा संगम स्थल था। उन्होंने बांकीदास तथा अन्य कई साहित्यकारों एवं कलाकारों को अपने राज दरबार में सम्मानित स्थान प्रदान किया था।
महाराजा मानसिंह का जन्म 13 फरवरी 1783 ई. को हुआ था। वह महाराजा विजय सिंह के पाँचवें पुत्र गुमान सिंह के पुत्र थें। बाल्यकाल से ही उन्हें माता-पिता की छत्र-छाया का अधिक सहारा न मिल सका। जब वह मात्र छः वर्ष के थे तब उनकी माता तथा जब वह दस वर्ष के थे तब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। महाराजा विजय सिंह के पुत्र फतेह सिंह, भोमसिंह एवं गुमान सिंह की मृत्यु उनके शासनकाल में ही हो जाने के कारण भोमसिंह के पुत्र भीमसिंह मारवाड के उत्तराधिकारी बने, लेकिन विजय सिंह की प्रेयसी पासवान गुलाब राय भीमसिंह से नाराज थी क्योंकि भीमसिंह ने गुलाब राय के पुत्र तेजसिंह का यह कहकर अपमान कर दिया था कि वह तो पासवास की जाइन्दा औलाद है । इसी वजह से गुलाब राय अपने पुत्र तेजसिंह की मौत के बाद मानसिंह को मारवाड की गद्दी पर बिठाना चाहती थी। इसी उदेश्य से उसने मानसिंह को औपचारिक रूप से अपना दत्तक पुत्र घोषित कर दिया। उसके प्रभाव से महाराज विजयसिंह नें वर्ष 1792 ई. में मानसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, लेकिन राठौड सरदारों को महाराजा का यह निर्णय रास नही आया और उन्होंने अपना जबरदस्त प्रतिरोध महाराजा के समक्ष प्रस्तुत किया। परिस्थितियों को देखतें हुए गुलाब राय नें सुरक्षा की दृष्टि से मानसिंह को अपने वफादार सामन्तों के साथ अपनी जागीर जालौर भेज दिया। इन्हीं परिस्थितियों में 8 जुलाई 1793 ई को महाराजा विजयसिंह का स्वर्गवास हो गया और उनके बाद जोधपुर के सिंहासन पर 20 जुलाई 1793 ई. को भीमसिंह का राजतिलक किया गया। मानसिंह अपने सामन्तों के साथ महाराज भीमसिंह के विरूद्ध छिटपुट विद्रोह करते रहे। 19 अक्टूबर 1803 ई. को भीमसिंह की मृत्यु के उपरान्त मानसिंह एक मात्र जीवित उत्तराधिकारी थे। अतः जालौर की सेना के सेनापति भण्डारी गंगा राम तथा इन्द्रराज सिंघवी ने मानसिंह से राजसिंहासन प्राप्त करने का अनुरोध किया तथा सामन्तो के अनुरोध को स्वीकार कर वह राज गद्दी पर आसीन हुए। 5 नवम्बर 1803 ई. रात्रि कों महाराजा मानसिंह द्वारा एक दरबार का आयोजन किया गया जिसमें पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत की अगुवाई में समस्त राठौड सरदारों ने नये महाराजा के प्रति अपनी वफादारी की शपथ ली।
महाराजा मानसिंह के शासन काल में भीमसिंह के समर्थक सरदारों ने कई परेशानियां खडी कीं, जिनसे पार पाना मानसिंह के लिए एक चुनौती भरा कार्य था। इन सरदारों में सबसे शक्तिशाली पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत थें।
एक अन्य समस्या थी- नाथों का बढता वर्चस्व। दरअसल जब मानसिंह जालौर में थे तब योगी आयस देवनाथ नें यह भविष्य वाणी की थी कि कार्तिक सुदी छठ ( 21 अक्टूबर 1803 ई) तक मानसिंह जोधपुर के महाराजा बन जायेंगे। चूंकि यह भविष्यवाणी सच साबित हुई, अतः मानसिंह नाथ सम्प्रदाय कें अंध भक्त बन गये।
तीसरी समस्या उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी से सम्बन्धित थी। राजकुमारी कृष्णा कुुमारी उस समय राजपुताना की सबसे सुन्दर राज कन्या थी तथा उसकी सगाई जोधपुर के महाराजा भीमसिंह के साथ हुई थी। विवाह से पूर्व भीमसिंह की मृत्यु हो जाने के कारण उदयपुर महाराणा ने जयपुर के महाराजा जगतसिंह से कृष्णा कुमारी की सगाई की बात चलाई। महाराजा मानसिंह ने महाराणा को समझानें की कोशिश की कि कृष्णा कुमारी का सम्बन्ध राठौडो में किया जा चुका है, अतः अब उसे कच्छवाहा राजघराने में भेजना न्यायोचित नही है, लेकिन महाराणा ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। परिणाम स्वरूप जोधपुर, उदयपुर तथा जयपुर के राजपरिवारों के मध्य एक लम्बा संघर्ष छिड गया, जिसका त्रासद अन्त राजकुमारी कृष्णा कुमारी द्वारा जहर पीकर आत्महत्या कर लेने से हुआ। यह शान्ति अधिक लम्बे समय तक कायम नहीं रह पायी तथा जयपुर नरेश जगत सिंह ने आखिरकार जोधपुर पर आक्रमण कर दिया तथा 30 मार्च 1807 ई पोकरण ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत ने जोधपुर नगर को घेर लिया। जयपुर और बीकानेर की सेना ने भी इस घेराबन्दी में पोकरण ठाकुर की मदद की। कुछ समय बाद जब जोधपुर की रक्षा करनी कठिन हो गई तब महाराजा मानसिंह ने भण्डारी गंगा राम, इन्द्रराज सिंघवी एवं नथकरण को जेल से रिहा कर अमीर खां पिण्डारी के पास भेजा, जिन्होने लालच देकर अमीर खाँ पिण्डारी को अपने पक्ष में कर लिया। अब अमीर खाँ तथा पृथ्वीराज ने जयपुर शहर पर चढाई कर दी तथा जयपुर शहर में लूटमार प्रारम्भ कर दी। इस घटना की जानकारी मिलते ही जयपुर नरेश जगत सिंह ने जोधपुर से घेरा उठा लिया तथा सेना सहित पुनः जयपुर लौट गये। इस प्रकार पोकरण ठाकुर की योजना नाकामयाब हो गई। यद्यपि कुछ समय बाद जयपुर तथा जोधपुर राजघराने में वैवाहिक सम्बन्धों से पुनः मित्रता स्थापित हो गई।
चौथी समस्या अमीर खाँ पिण्डारी था जों मारवाड रियासत के लिए सिरदर्द बन चुका था। अमीर खाँ ही इन्द्रराज सिंघवी तथा योगी आयस देवनाथ की हत्या के लिये उत्तरदायी था।
पाँचवी समस्या राजपूताना में अंग्रेजी सत्ता का बढता प्रभाव था। कठिन आन्तरिक परिस्थितियों के कारण यद्यपि मानसिंह कों अग्रेजो से सन्धि करनी पडी थी, तथापि वे जीवन पर्यन्त अंग्रेजी हुकुमत का विरोध करते रहे थे और यही कारण रहा कि अग्रेजों ने अन्ततः जोधपुर रियासत के विरूद्ध सैन्य अभियान छेड दिया। इस प्रकार चालीस वर्षों के लम्बे उथल-पुथल भरे शासनकाल के बाद 4 सितम्बर 1843 ई. को मण्डोर में महाराजा मानसिंह का स्वर्गवास हुआ । मानसिंह के शासन काल में ही उनके समस्त पुत्रों का देहावसान हो चुका था। अतः उन्होंने महाराजा अजीतसिंह के वंशज तथा ईडर में अहमद नगर के जागीरदार तखत सिंह को गोद ले लिया था एवं अंग्रेज़ी पाॅलिटिकल एजेन्ट के समक्ष तखत सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की इच्छा प्रकट कर दी थी।
महाराजा मानसिंह प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे तथा कर्नल जेम्स टाॅड के अनुसार उनमें स्वभावगत संयम तथा शिष्टाचार की गरिमा असीमित मात्रा में थी। उनके चरित्र में बाघ के समान भयंकरता तथा समयानुसार पाशविक चतुराई एवं क्रूरता का मेल था। मानसिंह जहाँ एक प्रतिभाशाली बुद्धिजीवी, साहित्य एवं कला के जौहरी थ,े वहीं उनके व्यक्तित्व में एक चालाक षड्यन्त्रकारी के समस्त गुण मौजूद थे। वह स्वयं एक कवि एवं साहित्यकार होने के साथ-साथ कला साहित्य एवं विद्वता के पोषक भी थे। वह संगीत के कद्रदान भी थे तथा खास कर राग माण्ड के शौकीन थे। वह देश के विभिन्न हिस्सों से विद्वानों तथा कलाकारों को आमन्त्रित कर सभाओं का आयोजन करवाते तथा उन्हें मुक्त-हस्त उपहार भी दिया करते थे। उन्होंने जोधपुर में हस्तलिखित पुस्तकों के पुस्तकालय की स्थापना की जो वर्तमान में महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश के नाम सें प्रसिद्ध है। इस पुस्तकालय में वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति एवं अनेक धार्मिक, पौराणिक तथा राजनैतिक ग्रन्थो का संग्रह है। प्रशासन के क्षेत्र में महाराजा मानसिंह नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों को असीमित अधिकार प्रदान करने के दोषी रहे है। इन नाथों मेें से अधिकांश भ्रष्ट तथा लालची थे , जिन्होंने अधिकांश राजकीय धन हडप लिया, आम जनता से जबरन रिश्वतें लीं, अधिकारियों को डराया-धमकाया एवं स्थान-स्थान पर जनता से लूटमार करने वाले अपने चेलों को नियुक्त करवा दिया। नतीजा यह रहा कि पूरे राज्य में आतंक का साम्राज्य छा गया था। इस प्रकार एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी होते हुए भी, असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी होते हुए भी यह राठौड शासक अपने प्रशासन में असफल रहा। यद्यपि वह एक अनमोल रत्न थे तथापि वह रत्न मात्र सजावट के काम आने वाला रत्न था। फिर भी मारवाड में उनके बारे में यह दोहा प्रसिद्ध है-
जोध बसायो जोधपुर, ब्रज कीनो ब्रजपाल।
लखनऊ काशी अरु दिल्ली, मान कियो नेपाल।।
अर्थात राव जोधा ने अपने नाम से जोधपुर बसाया, महाराजा विजयसिंह ने बल्लभ सम्प्रदाय की भक्ति के कारण इसे ब्रज प्रदेश बना दिया लेकिन महाराजा मानसिंह ने तो अकेले ही मारवाड को लखनऊ, काशी, दिल्ली एवं नेपाल बना दिया था।
प्रस्तुतिः- महेन्द्र कुमार जोशी।
महेश काॅलोनी मंगलपुरा पोकरण
मों0 9799933235
सन्दर्भ-माणक मई 1997
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