जनकवि गणेश लाल व्यास
राजनीत रे रोग सूं, बधे विपद जद पूर ।
मेटे संकट मुल्क रो, के साहित के सूर।।
साहित्य सूरमाओं की फेहरिस्त में कईं कवि शामिल हैं और थे लेकिन इन सब में से कुछ अलग थे जनकवि उस्ताद गणेश लाल व्यास। आधुनिक राजस्थानी कविताओं के नामी गिरामी कवि गणेश लाल व्यास उस्ताद इस धरती के मानव मन की परेशानियां और उनके दर्द को स्वर देकर सच्चे अर्थ में जनकवि कहलाए। उस्ताद से पहले राजस्थानी कविताओं की विषय वस्तु भक्ति रस, वीर रस एवं शृंगार रस की त्रिवेणी के इर्द-गिर्द घूमती रहती थी। परंपरागत लोक गीत भी ज्यादा लोकप्रिय थे। धीरे-धीरे युग परिवर्तन हुआ और इस बदलाव को काव्य रूप में संजोने में जनकवि उस्ताद का बहुत बड़ा योगदान रहा। उस्ताद स्वयं कहा करते थे-
गायक एक दिन मर जासी, पण एडा गीत बणा सी।
जन जन रे कंठा रमसी, पीढ़ी दर पीढ़ी गासी।।
आ काया तो कवि री है, पण जनता री युगवाणी है।
आ जनकवि री जुगवाणी, आ कदई न चुप रह जाणी।
मारवाड़ रियासत की राजधानी जोधपुर के पुष्करणा ब्राह्मण परिवार में चंद्रभान जी व्यास, जो गुडोलजी के नाम से प्रसिद्ध थे, के घर में सन 1907 ईस्वी में जन्मे गणेश लाल व्यास (उस्ताद) ने समाज को काव्य धारा के रूप में एक अमृत पान पिलाया था और अमृत की उन बूंदों से आज भी हर समाज, हर व्यक्ति लाभान्वित हो रहा है। उस्ताद के पिता गुडोल जी स्वयं काव्य के पारखी थे और कविताएं लिखा करते थे। उस्ताद की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा उच्च स्तर की ना हो सकी, मुश्किल से तीन चार जमात तक ही पढ़ पाए थे, लेकिन जो उन्होंने पढ़ा उसको सीखा और गुना। पढ़ाई की लगन उनके मन में इतनी थी कि उन्होंने शीघ्र ही साहित्य, राजनीति और दर्शन का समुचित अध्ययन कर डाला। दर्शनशास्त्र में उनका ज्ञान इतना बढ़ चुका था कि मास्टर डिग्री लेने वाले, एम.ए. के विद्यार्थियों को भी वह पढ़ाया करते थे। साथ ही साथ उस्ताद जी राजस्थानी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के भी ज्ञानी थे और इन समस्त भाषाओं में कविता लेखन भी किया करते थे। उनकी कविताएं समय-समय पर विभिन्न प्रकार के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में छपा करती थी।
तत्कालीन परिस्थितियों में जागीरदारी शासन के विरुद्ध उनके मन में बहुत असंतोष था, लेकिन एक विडंबना यह रही कि जागीरदार और राजाओं की हुकूमत के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले इस पुरुष को अपने जीवन की शुरुआत में ठिकाने में कामदारी का काम करना पड़ा। मारवाड़ के ठिकाने में कामदार की नौकरी करने के कारण उस्ताद ने किसानों की जिंदगी, किसानों की संस्कृति और सुख-दुःख को बहुत नजदीक से देखा था और यही वह कारण है कि उनकी कविताओं में गांव की संस्कृति और किसानों की मौजुदा हालात उभर कर आते हैं। ठिकाने की नौकरी में मन नहीं लगने के कारण शीघ्र ही उस्ताद ने यह नौकरी छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। अब उस्ताद अपने पिता के साथ मुंबई आ गए और वहां उन्होंने रेस कोर्स में जॉकी ब्वॉय का काम संभाल लिया। इन्हीं दिनों डेक्कन क्वीन नाम की ट्रेन में एक बार मुंबई क्रॉनिकल के संपादक बीसी हारनीमैन से उस्ताद की मुलाकात हुई। वह उस्ताद के इरादों और खरी खरी बोली से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उस्ताद को अपने पास नौकरी में रख लिया। मुंबई क्रॉनिकल में काम करते हुए उस्ताद ने अंग्रेजी भाषा, साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता सीखी और पारस बनकर वे मुंबई से निकले। उन्होंने दिल्ली के अर्जुन में, आगरा के सैनिक में, मुंबई के अखंड भारत में, ब्यावर के तरुण राजस्थान में, जोधपुर के रियासती, जन्मभूमि और कल की दुनिया अखबारों में काम किया। जीवन के अंतिम दिनों में उस्ताद ने स्वयं जयपुर से मुसीबत और जयपुर टाइम्स नाम के दो संध्याकालीन समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। उनकी कलम की धार सच्चाई और यथार्थपन को प्रस्तुत करने के कारण आज भी जानी जाती है।
मुंबई के बाद उस्ताद ब्यावर आ गए। इसी दरमियान अजमेर में आने जाने के दौरान उस्ताद को एक राजपूत लड़की से प्यार हो गया। उन दिनों समाज में जाति पाती के बंधन बहुत मजबूत थे ,लेकिन उस्ताद ने जो प्रेम की डोर बांधी, फिर उसे टूटने नहीं दिया। शीघ्र ही अपने मां-बाप और सास-ससुर के खिलाफ बगावत कर दोनों ने विवाह कर लिया। 1930 ई.में गांधीजी ने नमक आंदोलन के दौरान जो सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा था, उस्ताद ने इस सत्याग्रह आंदोलन का समर्थन करते हुए बढ़-चढ़कर भाग लिया। फलस्वरूप अंग्रेजी सरकार ने 1931 में उन्हें ब्यावर की जेल में बंदी बना लिया। जेल से छूटने के बाद उस्ताद इंदौर गए और वहां मिल में नौकरी की। वहां मजदूरों की खस्ता हालत देखकर, मजदूर संघ के संपर्क में आकर, माक्र्स और एंजेल के विचार पढ़कर वह साम्यवादी बन गए और उनके विचारों में, उनकी कविताओं में साम्यवादी आंदोलन की झलक अंत तक बनी रही।
महात्मा गांधी के प्रभाव से देश में क्रांति की लहर जाग उठी थी और मारवाड़ में भी इसी क्रांति की लहर को आधार मानकर मारवाड़ लोक परिषद् के नाम से सन 1938 में एक संगठन का निर्माण हुआ, जिसमें उस्ताद अपने साथी जयनारायण व्यास के साथ इस परिषद् के सदस्य बने। मारवाड़ के राजाओं की नज़रों में लोक परिषद् का काम खटकने लगा। इसी दौरान द्वितीय महायुद्ध शुरू होने पर अंग्रेजी सरकार के इशारे पर जोधपुर की हुकूमत ने लोक परिषद् को गैरकानूनी संगठन करार दिया और उनके खास सदस्यों को जेल में भर दिया। जयनारायण व्यास के साथ-साथ उस्ताद को भी जालौर किले की जेल में कैद कर दिया गया। 6 माह बाद अन्य समस्त नेताओं के साथ उस्ताद भी जेल से छूटे। बार-बार राजाओं और रजवाड़ों का मुखर विरोध करने के कारण मई 1942 में जयनारायण व्यास और बालमुकुंद बिस्सा के साथ उस्ताद को पुनः गिरफ्तार कर कैद कर दिया गया। जेल में सत्याग्रहियों के साथ बहुत अन्याय होता था, जिसका विरोध करने के लिए जयनारायण व्यास और बालमुकुंद बिस्सा ने जेल में भूख हड़ताल की और बिस्सा जी इस भूख हड़ताल में स्वर्ग सिधार गए। जब उस्ताद जेल में थे, इस दरमियान उस्ताद के पिता भी अपनी देह त्याग चुके थे। जैसे-तैसे जेल से निकलने के बाद मई 1942 में गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में सहयोग देने पर उस्ताद को पुनः जेल में डाल दिया गया। जुलाई 1944 में कांग्रेस के साथ अंग्रेजों का समझौता होने पर समस्त विद्रोहियों को जेल से छोड़ दिया गया। इस प्रकार जनकवि उस्ताद का संघर्षमय जीवन आगे बढ़ता रहा। इसी बीच वह काव्य रचनाएं रचते रहे। उस्ताद और उनके साथियों की कविताओं के काफी संकलन निकले 1932 में गरीबों की आवाज, 1940 में बेकसों की आवाज और 1944 में इंकलाबी तराने नाम के कविता संग्रह छपे। सरकार ने बेकसों की आवाज और गरीबों की आवाज को ज़ब्त कर लिया।
1947 में देश आजाद हो चुका था और देश की आजादी के संघर्ष में अगुवाई के साथ भाग लेने के कारण उस्ताद के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रही थी। अतः आजादी की लड़ाई के उनके साथी और मारवाड़ रियासत के मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास के अनुरोध पर उस्ताद ने सरकार के प्रचार प्रसार विभाग में नौकरी करना मुनासिब समझा। 1950 में राजस्थान का निर्माण हुआ और उस्ताद जयपुर आ गए। हीरालाल जी शास्त्री राजस्थान के मुख्यमंत्री बने। इस दौरान राजस्थान कांग्रेस में दो दरारें पड़ चुकी थी। जयनारायण व्यास का सरदार पटेल से विवाद हो गया था। सरदार पटेल तत्कालीन परिस्थितियों में प्रभावशाली नेता थे और शेर-ए-राजस्थान व्यास जी को नीचा दिखाने और बदला लेने के लिए उन्होंने जयनारायण व्यास और उनके मंत्रिमंडल के साथियों मथुरादास माथुर और द्वारकादास पुरोहित के ऊपर जोधपुर की एक अदालत में कोई गुप्त झूठा मुकदमा दाखिल करवा दिया। उस्ताद अपनी अपीलों में लिखते हैं कि उस समय मुख्यमंत्री हीरालाल जी शास्त्री ने उस्ताद पर जयनारायण जी व्यास, मथुरादास माथुर और द्वारकादास पुरोहित के खिलाफ अदालत में झूठी गवाही देने के लिए दबाव डाला लेकिन उस्ताद ने इंकार कर दिया। इसका फल उन्हें भोगना पड़ा। कईं वर्ष वह नौकरशाही की घानी में पिलते रहे। कईं सालों तक सरकार ने उनकी तनख्वाह तक नहीं दी। इस प्रकार देश की आजादी के बाद भी देश के शासन ने उस्ताद का जीवन नर्क बना दिया था। आजाद देश में नौकरशाही के साथ 18 वर्ष संघर्ष में वह थक चुके थे। इसी दरमियान 1965 में 29 अक्टूबर को जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में इस सुप्रसिद्ध जनकवि के जीवन का सूर्य अस्त हो गया।
राजस्थान के प्रथम जन कवि गणेश लाल व्यास "उस्ताद" आज भी अपनी कविताओं के माध्यम से जीवित हैं और हमारे बीच हैं। उन्होंने ठीक ही लिखा थाः-
मरते नहीं कजा से, उस्ताद जिंदगी के।।
-महेन्द्र कुमार जोशी