शनिवार, 29 सितंबर 2018

GANESH LAL VYAS "USTAAD"

जनकवि गणेश लाल व्यास 

राजनीत रे रोग सूं, बधे विपद जद पूर ।
मेटे संकट मुल्क रो, के साहित के सूर।।
    साहित्य सूरमाओं की फेहरिस्त में कईं कवि शामिल हैं और थे लेकिन इन सब में से कुछ अलग थे जनकवि उस्ताद गणेश लाल व्यास। आधुनिक राजस्थानी कविताओं के नामी गिरामी कवि गणेश लाल व्यास उस्ताद इस धरती के मानव मन की परेशानियां और उनके दर्द को स्वर देकर सच्चे अर्थ में जनकवि कहलाए। उस्ताद से पहले राजस्थानी कविताओं की विषय वस्तु भक्ति रस, वीर रस एवं शृंगार रस की त्रिवेणी के इर्द-गिर्द घूमती रहती थी। परंपरागत लोक गीत भी ज्यादा लोकप्रिय थे। धीरे-धीरे युग परिवर्तन हुआ और इस बदलाव को काव्य रूप में संजोने में जनकवि उस्ताद का बहुत बड़ा योगदान रहा। उस्ताद स्वयं कहा करते थे-
गायक एक दिन मर जासी, पण एडा गीत बणा सी।
जन जन रे कंठा रमसी, पीढ़ी दर पीढ़ी गासी।।
आ काया तो कवि री है, पण जनता री युगवाणी है।
आ जनकवि री जुगवाणी, आ कदई न चुप रह जाणी।
    मारवाड़ रियासत की राजधानी जोधपुर के पुष्करणा ब्राह्मण परिवार में चंद्रभान जी व्यास, जो गुडोलजी के नाम से प्रसिद्ध थे, के घर में सन 1907 ईस्वी में जन्मे गणेश लाल व्यास (उस्ताद) ने समाज को काव्य धारा के रूप में एक अमृत पान पिलाया था और अमृत की उन बूंदों से आज भी हर समाज, हर व्यक्ति लाभान्वित हो रहा है। उस्ताद के पिता गुडोल जी स्वयं काव्य के पारखी थे और कविताएं लिखा करते थे। उस्ताद की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा उच्च स्तर की ना हो सकी, मुश्किल से तीन चार जमात तक ही पढ़ पाए थे, लेकिन जो उन्होंने पढ़ा उसको सीखा और गुना। पढ़ाई की लगन उनके मन में इतनी थी कि उन्होंने शीघ्र ही साहित्य, राजनीति और दर्शन का समुचित अध्ययन कर डाला। दर्शनशास्त्र में उनका ज्ञान इतना बढ़ चुका था कि मास्टर डिग्री लेने वाले, एम.ए. के विद्यार्थियों को भी वह पढ़ाया करते थे। साथ ही साथ उस्ताद जी राजस्थानी, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के भी ज्ञानी थे और इन समस्त भाषाओं में कविता लेखन भी किया करते थे। उनकी कविताएं समय-समय पर विभिन्न प्रकार के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में छपा करती थी।
    तत्कालीन परिस्थितियों में जागीरदारी शासन के विरुद्ध उनके मन में बहुत असंतोष था, लेकिन एक विडंबना यह रही कि जागीरदार और राजाओं की हुकूमत के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले इस पुरुष को अपने जीवन की शुरुआत में ठिकाने में कामदारी का काम करना पड़ा। मारवाड़ के ठिकाने में कामदार की नौकरी करने के कारण उस्ताद ने किसानों की जिंदगी, किसानों की संस्कृति और सुख-दुःख को बहुत नजदीक से देखा था और यही वह कारण है कि उनकी कविताओं में गांव की संस्कृति और किसानों की मौजुदा हालात उभर कर आते हैं। ठिकाने की नौकरी में मन नहीं लगने के कारण शीघ्र ही उस्ताद ने यह नौकरी छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। अब उस्ताद अपने पिता के साथ मुंबई आ गए और वहां उन्होंने रेस कोर्स में जॉकी ब्वॉय का काम संभाल लिया। इन्हीं दिनों डेक्कन क्वीन नाम की ट्रेन में एक बार मुंबई क्रॉनिकल के संपादक बीसी हारनीमैन से उस्ताद की मुलाकात हुई। वह उस्ताद के इरादों और खरी खरी बोली से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उस्ताद को अपने पास नौकरी में रख लिया। मुंबई क्रॉनिकल में काम करते हुए उस्ताद ने अंग्रेजी भाषा, साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता सीखी और पारस बनकर वे मुंबई से निकले। उन्होंने दिल्ली के अर्जुन में, आगरा के सैनिक में, मुंबई के अखंड भारत में, ब्यावर के तरुण राजस्थान में, जोधपुर के रियासती, जन्मभूमि और कल की दुनिया अखबारों में काम किया। जीवन के अंतिम दिनों में उस्ताद ने स्वयं जयपुर से मुसीबत और जयपुर टाइम्स नाम के दो संध्याकालीन समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। उनकी कलम की धार सच्चाई और यथार्थपन को प्रस्तुत करने के कारण आज भी जानी जाती है।
    मुंबई के बाद उस्ताद ब्यावर आ गए। इसी दरमियान अजमेर में आने जाने के दौरान उस्ताद को एक राजपूत लड़की से प्यार हो गया। उन दिनों समाज में जाति पाती के बंधन बहुत मजबूत थे ,लेकिन उस्ताद ने जो प्रेम की डोर बांधी, फिर उसे टूटने नहीं दिया। शीघ्र ही अपने मां-बाप और सास-ससुर के खिलाफ बगावत कर दोनों ने विवाह कर लिया। 1930 ई.में गांधीजी ने नमक आंदोलन के दौरान जो सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा था, उस्ताद ने इस सत्याग्रह आंदोलन का समर्थन करते हुए बढ़-चढ़कर भाग लिया। फलस्वरूप अंग्रेजी सरकार ने 1931 में उन्हें ब्यावर की जेल में बंदी बना लिया। जेल से छूटने के बाद उस्ताद इंदौर गए और वहां मिल में नौकरी की।  वहां मजदूरों की खस्ता हालत देखकर, मजदूर संघ के संपर्क में आकर, माक्र्स और एंजेल के विचार पढ़कर वह साम्यवादी बन गए और उनके विचारों में, उनकी कविताओं में साम्यवादी आंदोलन की झलक अंत तक बनी रही। 
    महात्मा गांधी के प्रभाव से देश में क्रांति की लहर जाग उठी थी और मारवाड़ में भी इसी क्रांति की लहर को आधार मानकर मारवाड़ लोक परिषद् के नाम से सन 1938 में एक संगठन का निर्माण हुआ, जिसमें उस्ताद अपने साथी जयनारायण व्यास के साथ इस परिषद् के सदस्य बने। मारवाड़ के राजाओं की नज़रों में लोक परिषद् का काम खटकने लगा। इसी दौरान द्वितीय महायुद्ध शुरू होने पर अंग्रेजी सरकार के इशारे पर जोधपुर की हुकूमत ने लोक परिषद् को गैरकानूनी संगठन करार दिया और उनके खास सदस्यों को जेल में भर दिया। जयनारायण व्यास के साथ-साथ उस्ताद को भी जालौर किले की जेल में कैद कर दिया गया। 6 माह बाद अन्य समस्त नेताओं के साथ उस्ताद भी जेल से छूटे। बार-बार राजाओं और रजवाड़ों का मुखर विरोध करने के कारण मई 1942 में जयनारायण व्यास और बालमुकुंद बिस्सा के साथ उस्ताद को पुनः गिरफ्तार कर कैद कर दिया गया। जेल में सत्याग्रहियों के साथ बहुत अन्याय होता था, जिसका विरोध करने के लिए जयनारायण व्यास और बालमुकुंद बिस्सा ने जेल में भूख हड़ताल की और बिस्सा जी इस भूख हड़ताल में स्वर्ग सिधार गए। जब उस्ताद जेल में थे, इस दरमियान उस्ताद के पिता भी अपनी देह त्याग चुके थे। जैसे-तैसे जेल से निकलने के बाद मई 1942 में गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में सहयोग देने पर उस्ताद को पुनः जेल में डाल दिया गया। जुलाई 1944 में कांग्रेस के साथ अंग्रेजों का समझौता होने पर समस्त विद्रोहियों को जेल से छोड़ दिया गया। इस प्रकार जनकवि उस्ताद का संघर्षमय जीवन आगे बढ़ता रहा। इसी बीच वह काव्य रचनाएं रचते रहे। उस्ताद और उनके साथियों की कविताओं के काफी संकलन निकले 1932 में गरीबों की आवाज, 1940 में बेकसों की आवाज और 1944 में इंकलाबी तराने नाम के कविता संग्रह छपे। सरकार ने बेकसों की आवाज और गरीबों की आवाज को ज़ब्त कर लिया। 
    1947 में देश आजाद हो चुका था और देश की आजादी के संघर्ष में अगुवाई के साथ भाग लेने के कारण उस्ताद के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रही थी। अतः आजादी की लड़ाई के उनके साथी और मारवाड़ रियासत के मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास के अनुरोध पर उस्ताद ने सरकार के प्रचार प्रसार विभाग में नौकरी करना मुनासिब समझा। 1950 में राजस्थान का निर्माण हुआ और उस्ताद जयपुर आ गए। हीरालाल जी शास्त्री राजस्थान के मुख्यमंत्री बने। इस दौरान राजस्थान कांग्रेस में दो दरारें पड़ चुकी थी। जयनारायण व्यास का सरदार पटेल से विवाद हो गया था। सरदार पटेल तत्कालीन परिस्थितियों में प्रभावशाली नेता थे और शेर-ए-राजस्थान व्यास जी को नीचा दिखाने और बदला लेने के लिए उन्होंने जयनारायण व्यास और उनके मंत्रिमंडल के साथियों मथुरादास माथुर और द्वारकादास पुरोहित के ऊपर जोधपुर की एक अदालत में कोई गुप्त झूठा मुकदमा दाखिल करवा दिया। उस्ताद अपनी अपीलों में लिखते हैं कि उस समय मुख्यमंत्री हीरालाल जी शास्त्री ने उस्ताद पर जयनारायण जी व्यास, मथुरादास माथुर और द्वारकादास पुरोहित के खिलाफ अदालत में झूठी गवाही देने के लिए दबाव डाला लेकिन उस्ताद ने इंकार कर दिया। इसका फल उन्हें भोगना पड़ा। कईं वर्ष वह नौकरशाही की घानी में पिलते रहे। कईं सालों तक सरकार ने उनकी तनख्वाह तक नहीं दी। इस प्रकार देश की आजादी के बाद भी देश के शासन ने उस्ताद का जीवन नर्क बना दिया था। आजाद देश में नौकरशाही के साथ 18 वर्ष संघर्ष में वह थक चुके थे। इसी दरमियान 1965 में 29 अक्टूबर को जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में इस सुप्रसिद्ध जनकवि के जीवन का सूर्य अस्त हो गया। 
    राजस्थान के प्रथम जन कवि गणेश लाल व्यास "उस्ताद" आज भी अपनी कविताओं के माध्यम से जीवित हैं और हमारे बीच हैं। उन्होंने ठीक ही लिखा थाः-
मरते नहीं कजा से, उस्ताद जिंदगी के।।
-महेन्द्र कुमार जोशी

सोमवार, 24 सितंबर 2018

GIRI-SUMEL KA YUDHH

गिरी-सुमेल का युद्ध 

    यह प्रसिद्ध घटना उन दिनों की है जब मारवाड़ पर राव मालदेव का शासन था। महान योद्धा राव मालदेव ने अपने श्रेष्ठ रण कौशल से  मारवाड़ का राज्य दिल्ली और आगरा की सीमा तक पहुंचा दिया था। उन्होंने मेड़ता को भी अपने अधिकार में ले रखा था ।इसी वजह से मेड़ता नरेश वीरमदेव जी इन से नाराज़ थे । वीरमदेव जी की नाराजगी मालदेव के लिए बहुत भारी पड़ी। बीकानेर के राव कल्याणमल के छोटे भाई भीमराज दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी की सेवा में थे ।बदले की भावना से वीरम जी  भीमराज के पास पहुंचे और भीमराज की सहायता से शेरशाह सुरी को मालदेव पर आक्रमण के लिए उकसाया। शेर शाह सुरी अपनी पूरी तैयारी के साथ 20000 सैनिकों सहित आगरा से चल पड़ा और सुमेल के मैदान में अपना डेरा स्थापित किया। सूचना मिलने पर राव मालदेव भी अपने 50000 सैनिकों सहित गिरी के मैदान में आ डटे। माल देव उस समय भारत के सर्वश्रेष्ठ योद्धा थे और उनकी इस विशाल सेना को देखकर शेरशाह भयभीत  हो गया और घबराकर वापस लौटने का निश्चय किया। वीरमदेव जी ने शेरशाह सूरी को आश्वासन दिया और एक चालाकी भरी चाल चली ।उन्होंने बादशाह से 100000 फिरोजशाही स्वर्ण मुद्राएं  लेकर राव मालदेव की सेना में बेचने को भेजी जो वहां से 8 मील की दूरी पर थी। इन मोहरों का मूल्य उन दिनों 19 था जो वीरम जी ने 17 में बिकवा दी। इसके पश्चात वीरम जी ने 100 ढालें मंगवाई और बादशाह के सेवकों के हाथों चालाकी भरे फरमान लिखवा कर ढालों की गात्तियों में सिलवा दिये। अब इन ढालों को भी व्यापारी के माध्यम से राव मालदेव के सरदारों में सस्ती बिकवा दी। वीरमदेव जी की चाल सफल रही। अब वीरम जी ने मालदेव को एक पत्र लिखाए जिसमें उन्होंने संदेश भेजा कि आपने मेरा मेड़ता राज्य छीन लिया है और उसको वापस लेने के लिए मुझे शेरशाह का आश्रय लेना पड़ा पर आपके सभी सरदार न जाने क्यों बादशाह के सेवक बने हैं। हजारों सोने की मुद्राएं उनकी भेजी हुई ली है। यदि आप ही ढालें मंगवा कर  गट्टियों को चीरें तो आपको सब मालूम पड़ जाएगा। पत्र पढ़ते ही मालदेव एकदम चौंक गया। पत्र की पुष्टि के लिए मालदेव ने अपने जासूसों को भिजवाया और शीघ्र ही जासूसों ने मालदेव को संदेश दिया कि सेना में बहुत सारी फर्रुख शाही मोहरे आई है। अब मालदेव का सरदारो के प्रति संदेह बढ़ गया था। अतः उन्होंने सरदारो से ढाले मंगवाई और जब ढालो की गिट्टियों को फड़वाया गया तो वास्तव में प्रत्येक ढाल में से शाही फरमान निकला जिसका अर्थ यह था कि जो वादा तुमने मालदेव को पकड़ा देने का किया है उसको जल्दी पूरा करो। इन सब संदेशों को पढ़कर मालदेव अवाक रह गए। जब सरदारों को इस बात की भनक पडी  तो उन्होंने मालदेव को बहुत समझाया लेकिन मालदेव का संदेह नहीं मिटा । इस प्रकार मालदेव उसी रात्रि को सिवाना के पहाड़ों की तरफ चल दिए ।वीरमदेव और शेर शाह का षड्यंत्र सफल रहा। मालदेव के चले जाने पर भी स्वामीभक्त सरदार जेता और कुंपा आदि ने 5 जनवरी 1544 ईस्वी को शाही फौज पर जबर्दस्त धावा बोल दिया। शाही फौज के छक्के छूट गए उनके पांव उखड़ गए और वे बेतहाशा भागने लगे पर एकाएक शेर शाह  की एक अन्य टुकड़ी और अा मिली। विकट परिस्थितियों में राठौडों को क्षेत्र से हटना पड़ा। कहने को राठौड़ पराजित हुए परंतु शेर शाह राठौडों की वीरता और कुशलता पर आश्चर्यचकित होकर बोला- 
मैं तो मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान की बादशाहत को ही खो देता ।
    इस प्रकार एक बार फिर आपसी फूट ही हिंदुस्तान के लिए नुकसान जनक साबित हुई।
प्रस्तुति:-महेंद्र कुमार जोशी  

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

JANTAR MANTAR

जंतर-मंतर

    कनाट प्लेस (नई दिल्ली) के पास, संसद मार्ग पर जंतर-मंतर नाम की वेध शाला है। इसमें ईंट-पत्थर से बने खगोल विद्या सम्बंधी कई यंत्र है। पहले यह इलाका माधोगंज कहलाता था।
    जयपुर के जंतर-मंतर का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह ने 1710ई. में कराया। कुछ इतिहासकार इसके निर्माण का वर्ष 1724ई. बताते हैं। मुहम्मद शाह रंगीला ने उन्हें आगरा और मालवा का गवर्नर बनाया था। इनके समय में मुगलों की स्थिति उतनी मजबूत नहीं थी। राज काज में अव्यवस्था का माहौल था। जयसिंह का काफी समय लडाईयों में लग जाता था। लेकिन सैनिक होने के साथ-साथ वे बहुत बडे विद्वान भी थे। इन्हें गणित और खगोल विज्ञान से बहुत लगाव था। इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम और यूरोपियन स्कूलों से कई किताबें इकट्ठी कीं। कुछ किताबों का अनुवाद कराया। खगोल विद्या के जानकारों को जयपुर बुलाया। वर्षों की मेहनत और खोज के आधार पर इन्होंने जन्तर-मन्तर के यन्त्रों का निर्माण कराया। इनका निर्माण ऐसे समय हुआ जब वैज्ञानिकों के पस केवल अनगढ़ यंत्र थे। जन्तर-मन्तर के यंत्र बहुत ठोस थे। इनसे की गई जांच पूरी तरह से सही होती थी। महाराजा जयसिंह ने इन यंत्रों की सहायता से 7 वर्षों तक नक्षत्रों की जांच की। एक तालिका बलाई। फिर भी इन्हे संतोष नहीं मिला। जयपुर, उज्जैन, बनारस और मथुरा में भी वेधशालाएं बनवाई। वहां से नक्षत्रों का अध्ययन होता था, फिर उनके और जंतर-मंतर के नतीजों को मिलाया जाता था। एक से नतीजे निकलने के बाद की जानकारी सही होती थी। इतनी मेहनत के बाद नक्षत्रों की चाल का पता करने वाली किताबें पूरी तौर से सही बन पाई।
    जंतर-मंतर में चार तरह के यंत्र लगे हुए थे- 1. सम्राट यंत्र, 2. जयप्रकाश, 3. राम यंत्र, 4. मिश्र यंत्र। इनमें से कई नष्ट हो चुके हैं। समय-समय पर इनकी मरम्मत होती रही है, लेकिन जानकारी के बिना की गई मरम्मत से भी बर्बाद हो गए हैं।
    आज हमारा विज्ञान काफी उन्नत है। ग्रह, नक्षत्रों के अध्ययन करने के लिए कई आधुनिक यंत्र बन चुके हैं। लेकिन आज से चार सौ साल पहले इस क्षेत्र में उठाया गया यह कदम सचमुच तारीफ के काबिल है।

-महेंद्र कुमार जोशी  

शनिवार, 8 सितंबर 2018

RAJA MANSINGH

शक्ति एवं सरस्वती का मेलः महाराजा मानसिंह राठौड (13 फरवरी 1783 ई. से 4 सितम्बर 1843 ई.)

        मारवाड के राठौड राजाओं मे से एक ऐसे दूरदर्शी महाराजा का ज़िक्र आज यहाँ किया जा रहा है, जिन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह अन्दाज़ा लगा लिया था कि अंग्रेज़ी कम्पनी अपनी कूटनीतिक चालों से समूचे हिन्दुस्तान कों गुलामी की जंजीरों में कैद करके ही छोडेगी। इसीलिये उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त अंग्रेज़ों  का विरोध किया तथा अपने समकालीन समस्त रजवाडों के शासकों तथा सरदारों को भी संगठित हो कर अंग्रेज़ों को विरोध की प्रेरणा दी। यहाँ तक कि उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता के कट्टर दुश्मन मराठा सरदार यशवन्तराव होल्कर तथा अप्पा साहब भोंसले को भी अंग्रेजी हुकूमत की परवाह न करते हुए अपने राज्य में वक्त ज़रूरत शरण दी। लाॅर्ड विलियम बैंटिक ने जब अजमेर में शाही दरबार का आयोजन किया तो समस्त रजवाडों के राजाओं के उलट उन्होंने इस दरबार का बहिष्कार किया तथा उस जश्न में हाजिर नही हुए। वे लगातार अंग्रेजी हुकूमत की आज्ञाओं का उल्लंघन करते रहे तथा जीवन पर्यन्त खिराज चुकानें की अंग्रेजों की मांग को अनसुना करते रहे। जी हाँ; यहां ज़िक्र किया जा रहा है मारवाड के महाराजा मानसिंह का । 
महाराजा मानसिंह विद्वान, कवि तथा गुणों के पारखी थे। उनका व्यक्तित्व शक्ति तथा प्रज्ञा का अनूठा संगम स्थल था। उन्होंने बांकीदास तथा अन्य कई साहित्यकारों एवं कलाकारों को अपने राज दरबार में सम्मानित स्थान प्रदान किया था।
महाराजा मानसिंह का जन्म 13 फरवरी 1783 ई. को हुआ था। वह महाराजा विजय सिंह के पाँचवें पुत्र गुमान सिंह के पुत्र थें। बाल्यकाल से ही उन्हें माता-पिता की छत्र-छाया का अधिक सहारा न मिल सका। जब वह मात्र छः वर्ष के थे तब उनकी माता तथा जब वह दस वर्ष के थे तब उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। महाराजा विजय सिंह के पुत्र फतेह सिंह, भोमसिंह एवं गुमान सिंह की मृत्यु उनके शासनकाल में ही हो जाने के कारण भोमसिंह के पुत्र भीमसिंह मारवाड के उत्तराधिकारी बने, लेकिन विजय सिंह की प्रेयसी पासवान गुलाब राय भीमसिंह से नाराज थी क्योंकि भीमसिंह ने गुलाब राय के पुत्र तेजसिंह का यह कहकर अपमान कर दिया था कि वह तो पासवास की जाइन्दा औलाद है । इसी वजह से गुलाब राय अपने पुत्र तेजसिंह की मौत के बाद मानसिंह को मारवाड की गद्दी पर बिठाना चाहती थी। इसी उदेश्य से उसने मानसिंह को औपचारिक रूप से अपना दत्तक पुत्र घोषित कर दिया। उसके प्रभाव से महाराज विजयसिंह नें वर्ष 1792 ई. में मानसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, लेकिन राठौड सरदारों को महाराजा का यह निर्णय रास नही आया और उन्होंने अपना जबरदस्त प्रतिरोध महाराजा के समक्ष प्रस्तुत किया। परिस्थितियों को देखतें हुए गुलाब राय नें सुरक्षा की दृष्टि से मानसिंह को अपने वफादार सामन्तों के साथ अपनी जागीर जालौर भेज दिया। इन्हीं परिस्थितियों में 8 जुलाई 1793 ई को महाराजा विजयसिंह का स्वर्गवास हो गया और उनके बाद जोधपुर के सिंहासन पर 20 जुलाई 1793 ई. को भीमसिंह का राजतिलक किया गया। मानसिंह अपने सामन्तों के साथ महाराज भीमसिंह के विरूद्ध छिटपुट विद्रोह करते रहे। 19 अक्टूबर 1803 ई. को भीमसिंह की मृत्यु के उपरान्त  मानसिंह एक मात्र जीवित उत्तराधिकारी थे। अतः जालौर की सेना के सेनापति भण्डारी गंगा राम तथा इन्द्रराज सिंघवी ने मानसिंह से राजसिंहासन प्राप्त करने का अनुरोध किया तथा सामन्तो के अनुरोध को स्वीकार कर वह  राज गद्दी पर आसीन हुए। 5 नवम्बर 1803 ई. रात्रि कों महाराजा मानसिंह द्वारा एक दरबार का आयोजन किया गया जिसमें पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत की अगुवाई में समस्त राठौड सरदारों ने नये महाराजा के प्रति अपनी वफादारी की शपथ ली। 
महाराजा मानसिंह के शासन काल में भीमसिंह के समर्थक सरदारों ने कई परेशानियां खडी कीं, जिनसे पार पाना मानसिंह के लिए एक चुनौती भरा कार्य था। इन सरदारों में सबसे शक्तिशाली पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत थें। 
एक अन्य समस्या थी- नाथों का बढता वर्चस्व। दरअसल जब मानसिंह जालौर में थे तब योगी आयस देवनाथ नें यह भविष्य वाणी की थी कि कार्तिक सुदी छठ ( 21 अक्टूबर 1803 ई) तक मानसिंह जोधपुर के महाराजा बन जायेंगे। चूंकि यह भविष्यवाणी सच साबित हुई, अतः मानसिंह नाथ सम्प्रदाय कें अंध भक्त बन गये। 
तीसरी समस्या उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी से सम्बन्धित थी। राजकुमारी कृष्णा कुुमारी उस समय राजपुताना की सबसे सुन्दर राज कन्या थी तथा उसकी सगाई जोधपुर के महाराजा भीमसिंह के साथ हुई थी। विवाह से पूर्व भीमसिंह की मृत्यु हो जाने के कारण उदयपुर महाराणा ने जयपुर के महाराजा जगतसिंह से कृष्णा कुमारी की सगाई की बात चलाई। महाराजा मानसिंह ने महाराणा को समझानें की कोशिश की कि कृष्णा कुमारी का सम्बन्ध राठौडो में किया जा चुका है, अतः अब उसे कच्छवाहा राजघराने में भेजना न्यायोचित नही है, लेकिन महाराणा ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। परिणाम स्वरूप जोधपुर, उदयपुर तथा जयपुर के राजपरिवारों के मध्य एक लम्बा संघर्ष छिड गया, जिसका त्रासद अन्त राजकुमारी कृष्णा कुमारी द्वारा जहर पीकर आत्महत्या कर लेने से हुआ। यह शान्ति अधिक लम्बे समय तक कायम नहीं रह पायी तथा जयपुर नरेश जगत सिंह ने आखिरकार जोधपुर पर आक्रमण कर दिया तथा 30 मार्च 1807 ई पोकरण ठाकुर सवाई सिंह चम्पावत ने जोधपुर नगर को घेर लिया। जयपुर और बीकानेर की सेना ने भी इस घेराबन्दी में पोकरण ठाकुर की मदद की। कुछ समय बाद जब जोधपुर की रक्षा करनी कठिन हो गई तब महाराजा मानसिंह ने भण्डारी गंगा राम, इन्द्रराज सिंघवी एवं नथकरण को जेल से रिहा कर अमीर खां पिण्डारी के पास भेजा, जिन्होने लालच देकर अमीर खाँ पिण्डारी को अपने पक्ष में कर लिया। अब अमीर खाँ तथा पृथ्वीराज ने जयपुर शहर पर चढाई कर दी तथा जयपुर शहर में लूटमार प्रारम्भ कर दी। इस घटना की जानकारी मिलते ही जयपुर नरेश जगत सिंह ने जोधपुर से घेरा उठा लिया तथा सेना सहित पुनः जयपुर लौट गये। इस प्रकार पोकरण ठाकुर की योजना नाकामयाब हो गई। यद्यपि कुछ समय बाद जयपुर तथा जोधपुर राजघराने में वैवाहिक सम्बन्धों से पुनः मित्रता स्थापित हो गई। 
चौथी समस्या अमीर खाँ पिण्डारी था जों मारवाड रियासत के लिए सिरदर्द बन चुका था। अमीर खाँ ही इन्द्रराज सिंघवी तथा योगी आयस देवनाथ की हत्या के लिये उत्तरदायी था। 
पाँचवी समस्या राजपूताना में अंग्रेजी सत्ता का बढता प्रभाव था। कठिन आन्तरिक परिस्थितियों के कारण यद्यपि मानसिंह कों अग्रेजो से सन्धि करनी पडी थी, तथापि वे जीवन पर्यन्त अंग्रेजी हुकुमत का विरोध करते रहे थे और यही कारण रहा कि अग्रेजों ने अन्ततः जोधपुर रियासत के विरूद्ध सैन्य अभियान छेड दिया। इस प्रकार चालीस वर्षों के लम्बे उथल-पुथल भरे शासनकाल के बाद 4 सितम्बर 1843 ई. को मण्डोर में महाराजा मानसिंह का स्वर्गवास हुआ । मानसिंह के शासन काल में ही उनके समस्त पुत्रों का देहावसान हो चुका था। अतः उन्होंने महाराजा अजीतसिंह के वंशज तथा ईडर में अहमद नगर के जागीरदार तखत सिंह को गोद ले लिया था एवं अंग्रेज़ी पाॅलिटिकल एजेन्ट के समक्ष तखत सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की इच्छा प्रकट कर दी थी। 
महाराजा मानसिंह प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे तथा कर्नल जेम्स टाॅड के अनुसार उनमें स्वभावगत संयम तथा शिष्टाचार की गरिमा असीमित मात्रा में थी। उनके चरित्र में बाघ के समान भयंकरता तथा समयानुसार पाशविक चतुराई एवं क्रूरता का मेल था। मानसिंह जहाँ एक प्रतिभाशाली बुद्धिजीवी, साहित्य एवं कला के जौहरी थ,े वहीं उनके व्यक्तित्व में एक चालाक षड्यन्त्रकारी के समस्त गुण मौजूद थे। वह स्वयं एक कवि एवं साहित्यकार होने के साथ-साथ कला साहित्य एवं विद्वता के पोषक भी थे। वह संगीत के कद्रदान भी थे तथा खास कर राग माण्ड के शौकीन थे। वह देश के विभिन्न हिस्सों से विद्वानों तथा कलाकारों को आमन्त्रित कर सभाओं का आयोजन करवाते तथा उन्हें मुक्त-हस्त उपहार भी दिया करते थे। उन्होंने जोधपुर में हस्तलिखित पुस्तकों के पुस्तकालय की स्थापना की जो वर्तमान में  महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश के नाम सें प्रसिद्ध है। इस पुस्तकालय में वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति एवं अनेक धार्मिक, पौराणिक तथा राजनैतिक ग्रन्थो का संग्रह है। प्रशासन के क्षेत्र में महाराजा मानसिंह नाथ सम्प्रदाय के अनुयायियों को असीमित अधिकार प्रदान करने के दोषी रहे है। इन नाथों मेें से अधिकांश भ्रष्ट तथा लालची थे , जिन्होंने अधिकांश राजकीय धन हडप लिया, आम जनता से जबरन रिश्वतें लीं, अधिकारियों को डराया-धमकाया एवं स्थान-स्थान पर जनता से लूटमार करने वाले अपने चेलों को नियुक्त करवा दिया। नतीजा यह रहा कि पूरे राज्य में आतंक का साम्राज्य छा गया था। इस प्रकार एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी होते हुए भी, असाधारण व्यक्तित्व का स्वामी होते हुए भी यह राठौड शासक अपने प्रशासन में असफल रहा। यद्यपि वह एक अनमोल रत्न थे तथापि वह रत्न मात्र सजावट के काम आने वाला रत्न था। फिर भी मारवाड में उनके बारे में यह दोहा प्रसिद्ध है-
जोध बसायो जोधपुर, ब्रज कीनो ब्रजपाल।
लखनऊ काशी अरु दिल्ली, मान कियो नेपाल।।
अर्थात राव जोधा ने अपने नाम से जोधपुर बसाया, महाराजा विजयसिंह ने बल्लभ सम्प्रदाय की भक्ति के कारण इसे ब्रज प्रदेश बना दिया लेकिन महाराजा मानसिंह ने तो अकेले ही मारवाड को लखनऊ, काशी, दिल्ली एवं नेपाल बना दिया था।

                                              प्रस्तुतिः- महेन्द्र कुमार जोशी। 
                                          महेश काॅलोनी मंगलपुरा पोकरण
                                                मों0 9799933235

सन्दर्भ-माणक मई 1997

सोमवार, 3 सितंबर 2018

BAN GANGA

बाण गंगा

       गंगा के नाम से सम्बन्धित ऐसा एक पावन तीर्थ-स्थल बिलाडा नगर के उत्तर में लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महादानी राजा बलि ने त्रिलोकी का राज्य और इन्द्र सिंहासन पाने के लिए सौ यज्ञ अलग-अलग स्थान पर किये थे। उसमें से पांच यज्ञ बिलाडा नगर के पास पंचायाग (जिसका अपभ्रंश रूप पिचियाक है) स्थान पर किये थे। यज्ञ में पवित्र गंगा जल की आवश्यकता थी। तब राजा बलि ने गंगा को अपने यज्ञ-अनुष्ठान में आने का निमन्त्रण दिया और गंगा-मैया की पूजा-अर्चना के बाद विधि विधान के अनुसार एक बाण पृथ्वी पर मारा। जिस स्थान पर बाण मारा उसी स्थान पर जल की धारा फूट निकली, उसे बाण-गंगा कहा जाने लगा। बाण गंगा जल-धारा इस धरती पर जब से बहने लगी है, यह धरती हरी-भरी बन गई है।
       बाण-गंगा का मुख्य कुण्ड पुरूषों (मर्दाना) के कुण्ड के नाम से भी जाना जाता है। इसे निज कुण्ड भी कहते है। पानी से भरे हुए इस कुण्ड की लम्बाई व चौडाई 55 फुट तथा 45 फुट है। अन्दर पत्थर की बडी-बडी बुर्जें हैं। आश्चर्य होता है कि प्राचीन काल में बिना मशीनों के बडी-बडी बुर्जें किस प्रकार पानी में उतारी गईं होंगी पानी के भीतर बांधई में लोहा, शीशा, लकडी व चूना भी काम में लिया गया था।  बाण गंगा के मुख्य कुण्ड के पश्चिम में हनुमानजी (बजरंग बली) का मन्दिर हैं। मन्दिर की प्रतिमा बहुत पुरानी है।
  निज कुण्ड के दक्षिण में दो बडी-बडी छतरियां (स्मारक) हैं। इनमें पूर्व दिशा की तरफ बनी छतरी परम तपस्वी दीवान श्री रोहितासजी की छतरी के नाम से जानी जाती है। इसके पास वाली छतरी श्री भगवानदाजी दीवान साहब की है, इन दोनों छतरियों के पास जो छतरी है, वह दीवान रोहितासजी के बडे भाई चौथजी की छतरी है।
     इन दोनों छतरियों (स्मारकों) के सामने पश्चिम की तरफ गंगा माई का प्राचीन मन्दिर है जिसका अब जीर्णोद्धार हो चुका है।
 इन दोनों छतरियों (स्मारकों) के सामने पश्चिम की तरफ गंगा माई का प्राचीन मन्दिर है जिसका अब जीर्णोद्धार हो चुका है। चारभुजाधारी गंगा माई के सिर पर मुकुट और शरीर पर वस्त्राभूषण बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं।
       गंगा माई के मन्दिर के पास
 महादेवजी का एक पुराना मन्दिर है। इसमें राजा बलि को पाताल भेजने से जुडी मूर्ति देखने योग्य हैं, जो बहुत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। यहां एक बहुत बडा प्राचीन देवल भी है। 
प्रस्तुति- महेन्द्र कुमार जोशी।

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