रविवार, 18 नवंबर 2018

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

स्वाभिमानी  वीर :  महाराणा प्रताप

    वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। वह तिथि धन्य है जब मेवाड़ की शौर्य भूमि पर मेवाड़ मुकुट  राणा प्रताप का जन्म हुआ। महाराणा प्रताप का नाम इतिहास में वीरता और दृढ़ प्रतिज्ञा के लिए अमर है। महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी संवत कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष जेष्ठ शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है। महाराणा प्रताप ने यह प्रतिज्ञा की थी कि चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व वह पात्र में भोजन तथा शैय्या पर शयन कभी नहीं करेंगे। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेंगे। इस प्रतिज्ञा का पालन उन्होंने पूरी तरह से किया। मूलमंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश नहीं झुकाएगा। तुर्कों को अपनी बहन बेटी का समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना महाराणा प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। महाराणा प्रताप की यह प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही और जब तक 29 जनवरी सन् 1597ई. को उन्होंने परम धाम की यात्रा की तब तक उन्होंने अपने इस प्रण का पालन किया। इसी संदर्भ में महाराणा प्रताप और मानसिंह की एक घटना का उल्लेख किया जाना प्रासंगिक होगा।
    सोलापुर की विजय के बाद मानसिंह कच्छवाहा वापस हिंदुस्तान लौट रहा था तो उसने महाराणा प्रताप से, जो इन दिनों कमल मीर में थे ,मिलने की इच्छा प्रकट की। महाराणा प्रताप उसका स्वागत करने के लिए उदयसागर तक आए। इस झील के सामने वाले टीले पर आमेर नरेश के लिए दावत की व्यवस्था की गई थी। भोजन तैयार हो जाने पर मानसिंह को बुलावा भेजा गया। राजकुमार अमर सिंह को अतिथि की सेवा के लिए नियुक्त किया गया था। महाराणा प्रताप अनुपस्थित थे। मानसिंह के पूछने पर अमर सिंह ने बताया कि महाराणा को सिर दर्द है और वे नहीं आ पाएंगे अतः आप भोजन करके विश्राम करें । मानसिंह ने गर्व के साथ सम्मानित स्वर में कहा कि राणा जी से कहो कि उनके सिर दर्द का यथार्थ कारण मैं समझ गया हूं । जो कुछ होना था, वह तो हो गया। अब उसको सुधारने का कोई उपाय नहीं है, फिर भी यदि मुझे खाना नहीं परोसेंगे तो और कौन पारोसेगा। लेकिन राणा नहीं आए। मान सिंह ने राणा के बिना भोजन स्वीकार नहीं किया। मानसिंह ने भोजन को छुआ तक नहीं, केवल चावल के कुछ कणों को, जो अन्न देवता को अर्पण किए गए थे, उन्हें अपनी पगड़ी में रख कर वहां से निकल आया। इस पर महाराणा ने उसे संदेश भिजवाया कि जिस राजपूत ने अपनी बहन बेटी तुर्कों को दे दी हो, उसके साथ कोई राजपूत भोजन नहीं करेगा। मानसिंह ने इसे अपना अपमान समझा और अपने घोड़े पर सवार होते हुए उसने  महाराणा प्रताप को कठोर दृष्टि से निहारते हुए कहा कि यदि मैं तुम्हारा मान चूर-चूर ना कर दूं, तो मेरा नाम मान सिंह नहीं। महाराणा प्रताप ने उत्तर दिया कि आपसे मिलकर मुझे खुशी होगी। वहां पर उपस्थित किसी व्यक्ति ने मानसिंह को यह भी कहा कि अपने साथ अपने फूफा अकबर को लाना मत भूलना। जिस स्थान पर मानसिंह के लिए भोजन सजाया गया था, उसे अपवित्र हुआ मानकर खुदवा दिया गया और फिर वहां गंगा का जल छिड़क कर उसे पवित्र किया गया। जिन सरदारों और राजपूतों ने अपमान का यह दृश्य देखा था, उन सभी ने स्वयं को मानसिंह का दर्शन करने से पतित समझकर स्नान किया और वस्त्र आदि बदले। मुगल सम्राट को संपूर्ण वृतांत की सूचना दी गई। उसने मानसिंह के अपमान को अपना अपमान समझा। उसने समझा था कि राजपूत अपने पुराने संस्कारों को छोड़ बैठे होंगे, परंतु यह उसकी भूल थी। इस अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारी की गई और इन्हीं युद्धों ने महाराणा प्रताप का का नाम अमर कर दिया। इनमें से पहला युद्ध हल्दीघाटी के नाम से प्रसिद्ध है। जब जब तक भारतवर्ष रहेगा तब तक महाराणा प्रताप का नाम गौरव से लिया जाता रहेगा।
    महाराणा प्रताप ने राजपूत सरदारों की आन बान और शान को सदा बनाए रखा। उन्होंने सिसोदिया वंश की गरिमा को कभी मिट्टी में नहीं मिलने दिया। महलों को त्यागकर वनों में दर-दर की ठोकरें खाई, भूख और प्यास सहे ,लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी उच्च  मर्यादा और  स्वाभिमान को सदा बनाए रखा। महाराणा प्रताप के बारे में प्रसिद्ध है-:
पग-पग भम्या पहाड़, धरा छोड़ राख्यो धर्म।
महाराणा मेवाड़, हिरदे बसया हिंद रे।। 
    अकबर ने भी इन समाचारों को सुना और यह पता लगाने के लिए अपना एक गुप्तचर भेजा। यह गुप्त चर किसी तरीके से उस स्थान पर पहुंच गया, जहां महाराणा प्रताप और उनके सरदार एक घने जंगल के मध्य एक वृक्ष के नीचे घास पर बैठे भोजन कर रहे थे। उनके भोजन में जंगली फल ,पत्तियां और जड़ें  थी ,परंतु सभी लोग उस भोजन को भी उसी उत्साह के साथ खा रहे थे ,जिस प्रकार कोई राज महल में बने भोजन को प्रसन्नता और उमंग के साथ खाता हो। गुप्त चर ने किसी भी सरदार के चेहरे पर उदासी और चिंता नहीं देखी। उसने शीघ्र ही वापस आकर बादशाह अकबर को पूरा वृतांत सुनाया। यह घटना सुनकर अकबर का मन भी महाराणा प्रताप के लिए सम्मान से भर गया और राणा प्रताप के प्रति उसके मन में भी सम्मान की भावना जागृत हुई। उसने अपने दरबार के अनेक सरदारों से महाराणा प्रताप के तप, त्याग और बलिदान की प्रशंसा सराहना की। अकबर के नवरत्न और विश्वासपात्र सरदार अब्दुर्रहीम खानखाना ने भी अकबर के मुख से प्रताप की प्रशंसा सुनी थी। उसने अपनी भाषा में लिखा, इस संसार में सभी नाशवान है। राज्य और धन किसी भी समय नष्ट हो सकता है, परंतु महान व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं हो सकती। महाराणा प्रताप ने धन और भूमि का त्याग कर दिया, परंतु उसने कभी अपना शीश नहीं झुकाया। हिंदुस्तान के राजाओ में वही एकमात्र ऐसा सम्राट है जिसने अपनी जाति के गौरव को बनाए रखा है।
    कहा जाता है कि अमर सिंह के रोने बिलखने और उसकी भूख और प्यास से पसीजते हुए महाराणा प्रताप ने अकबर को एक पत्र लिखा था। राणा के पत्र को पाकर अकबर की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। उसने इसका अर्थ राणा प्रताप का आत्मसमर्पण समझा और कई प्रकार के सार्वजनिक उत्सव अपनी राजधानी में किए। अकबर के दरबार में पृथ्वीराज राठौड़ नाम का एक राजपूत सरदार था। पृथ्वीराज बीकानेर के नरेश का छोटा भाई था। इस बीकानेर नरेश ने मुगल सत्ता के सामने शीश झुका दिया था। पृथ्वीराज राठौड़ केवल वीर ही नहीं अपितु एक योग्य कवि भी था। पृथ्वीराज महाराणा प्रताप की सदैव आराधना करता आया था और उनकी गौरवगाथा को सुनकर उसका हृदय और उस का मस्तक हमेशा गर्व से ऊंचा उठा रहता था। बादशाह अकबर ने उस पत्र को पृथ्वीराज को दिखाया। महाराणा प्रताप के पत्र को पढ़कर पृथ्वीराज का मस्तक चकराने लगा उसके मन में भीषण पीड़ा की अनुभूति हुई फिर भी अपने मनोभाव पर अंकुश रखते हुए उसने अकबर से कहा बादशाह आलमगीर यह पत्र महाराणा प्रताप का नहीं हो सकता किसी शत्रु ने प्रताप के यश के साथ यह जालसाजी की है और आपको भी धोखा दिया है वह आपके ताज के बदले में भी कभी आपकी अधीनता स्वीकार नहीं करेगा। उसने सत्य का पता लगाने के लिए बादशाह अकबर को अपना एक पत्र महाराणा प्रताप के पास भिजवाने का अनुरोध किया जिसे बादशाह अकबर द्वारा स्वीकार कर लिया गया। पृथ्वीराज ने यह पत्र राजस्थानी शैली में महाराणा प्रताप को भेजा था। उसने इस पत्र में राणा प्रताप को उस स्वाभिमान का स्मरण करवाया, जिसकी खातिर उसने अब तक इतनी विपदाओं को सहन किया था और अपूर्व त्याग और बलिदान के द्वारा अपना मस्तक ऊंचा रखा था। पत्र में उसने यह भी अवगत करवाया कि हमारे घरों की स्त्रियों की मर्यादा भंग हो गई है और यह मर्यादाएं बाजार में बेची जा रही है। इन मर्यादाओं का खरीददार केवल अकबर है। उसने सिसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छोड़कर सब को खरीद लिया है, परंतु हे प्रताप! वह आपको नहीं खरीद पाया है। हमें गर्व है कि प्रताप ऐसा राजपूत नहीं जो नौ रोजा के लिए अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है। क्या अब  चित्तौड़ का स्वाभिमान भी इस बाजार में बिकेगा। कहा जाता है कि पृथ्वीराज राठौड़ के डिंगल भाषा में लिखे गए पत्र को पढ़कर महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता  अस्वीकार  करने का निर्णय लिया और इस प्रकार पृथ्वीराज के प्रयासों से सिसोदिया वंश की गरिमा अंत तक बनी रही।
-  महेंद्र कुमार जोशी 

रविवार, 11 नवंबर 2018

वाल्मीकि संत नवल राम जी

संत नवल राम जी    

    माना कि राजस्थान वीरों और वीरांगनाओं की भूमि है, लेकिन केवल वीर भूमि कहना गलत होगा, क्योंकि यह भूमि अपने गर्भ में कुछ और हुनर संचित किए हुए हैं। यहां की एक विशेष पहचान यहां की आध्यात्मिकता भी है।
    राजस्थान के लोगों में आध्यात्मिकता कुछ इस कदर रची-बसी है कि चाहकर भी इस आध्यात्मिकता को इस भूमि से और यहां के लोगों के जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है। आध्यात्मिकता की इस लौ को जलाए रखने में समय-समय पर इस भूमि ने अनेक विद्वान और संयमी संतों को जन्म दिया है। इन्हीं में से एक वाल्मीकि संत के बारे में आज चर्चा की जा रही है- 
    सन 1783 ईस्वी में नागौर जिले की मेड़ता तहसील के गांव हरसोलाव में एक हरिजन परिवार में संत नवल राम जी का जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम कुशाला राम जी था और माता का नाम सिंगारी था। वे अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के नवल रामजी में जब उनके पिता ने यह प्रवृत्ति देखी, तो वे उन्हें रामानंद संप्रदाय के मेघवंशी संत कृपाराम जी के पास ले गए। संत कृपाराम जी ने उन्हें आध्यात्मिक उपदेश दिया और अपना शिष्य बना लिया। आध्यात्मिक जीवन बिताते हुए नवलराम जी अनेक संत महात्माओं के संपर्क में आए। अाध्यात्मिक उपदेश देते और लेते हुए उनका ज्ञान निरंतर बढ़ता गया। धीरे-धीरे वे आध्यात्मिक साधना के साथ पदों की रचना भी करने लगे। इनकी रचनाओं में निर्गुण परमात्मा की महिमा का बखान किया गया है। उन्होंने आमजन में सीधी सरल भाषा में राम नाम की महिमा पर जोर दिया है और आध्यात्मिक दार्शनिक विचारों को अपनी सरल भाषा में प्रस्तुत किया है। इनकी वाणियों और दोहों का संग्रह नवलेश्वर अनुभव वाणी प्रकाश में मिलता है, जो सरल राजस्थानी भाषा में प्रकाशित है। उन्होंने सत्य को अपने उपदेश का आधार माना है। उनका कहना है कि धन, दौलत, रूप और राज सत्ता तो एक दिन मिट्टी में मिल जानी है, लेकिन सत्य को कभी भी नुकसान नहीं पहुंच सकता। उनका एक दोहा दृष्टव्य है-
धन्न डिगे ,जोबन डिगे, राज तेज डिग जाए ।।
सत्य वचन ना  डिगे नवल, जुग परले हो जाए।।
    संत नवलराम जी के 3 पुत्र थे- लादूराम, हरिराम और दयालराम। इन तीनों में दयाल राम की प्रवृत्ति आध्यात्मिक थी, अतः दयाल राम जी नवलराम जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी बने। करीब 1908 ई. के आसपास नवलराम जी ने परमधाम गमन किया। उनके बाद उनके प्रमुख शिष्य और आध्यात्मिक उत्तराधिकारी दयालराम जी ने इनकी आध्यात्मिक विचारधारा को आगे बढ़ाया। इस प्रकार यह परंपरा आगे बढ़ती रही और धीरे-धीरे नवल संप्रदाय के रूप में इसने एक ठोस स्वरूप ग्रहण कर लिया। आज इस संप्रदाय का काफी फैलाव है और इस संप्रदाय के मंदिर राजस्थान में जोधपुर, बीकानेर ,अजमेर, जयपुर इत्यादि कई शहरों में है। यहां तक कि पाकिस्तान के कराची शहर में भी नवल संप्रदाय का मंदिर है। इस प्रकार संत नवलराम जी के उपदेशों पर आधारित नवल संप्रदाय आज भी उनके अनुयायियों और आध्यात्मिक संतों द्वारा प्रगति के मार्ग पर ले जाया जा रहा है।
-महेंद्र कुमार जोशी 

वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

स्वाभिमानी  वीर :  महाराणा प्रताप     वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। वह तिथि धन्य है जब मेवाड़ की शौर्...